Thursday, February 25, 2016

राजनीति और प्रेम (व्यंग): तिमिला टाइम्स

राजनीति और प्रेम (व्यंग): तिमिला टाइम्स
नोट: इस घट्ना के सभी पात्र सजीव है इनका सभी के जीवन से कुछ न कुछ लेना देना अवश्य है!!
असहिष्णुता की खट्टी डकारों से चल के देश प्रेम की बदहजमी से होकर आंखिर ये बहस आरक्षण तक जा पहुँची, जहां हर कोइ अपनी-अपनी ढपली व अपना-अपना राग अलाप रहा है! ....वैसे भी इस देश की पडी किसको है?? जिस देश में राजनीती एक व्यवसाय हो और नेता एक व्यवसाई तो उसक देश की विडम्बना ही है की वहां संवेदनाये, अर्थव्यवस्था, देशप्रेम एवं अभिव्यक्ति की आजादी हानि-लाभ से अधिक् कुछ नहीं उसपर लोकतंत्र का तम्बू  जिसमे अनगिनत छेद है जो टिका है कुछ कमजोर खम्भों के सहारे जिसके लगातार गिरने का खतरा बना हुआ है 
मैं अतिउत्साह्वादी होकर अपनी कहानी को नहीं भट्काना चाहता क्योंकि मुझे स्वतन्त्रता अधिक पसन्द है बजाय के किसी पार्टी विशेष के बैनर तले एकाकि होकर किसी व्यक्तिविशेष की विचार धारा का प्रचार-प्रसार करके वर्ग विशेष को कोसना या फ़िर खुद के पांवों पर बेडियां डाल लेना.......... एनीवे !!

"तुष्यारू कड़कड़ घामा औंण तक" अर्थात जिस प्रकार सूरज के निकंलने पर तुषार (बर्फ) पिघलने लगती है उसी प्रकार कुछ हजार करोड़ स्वाहा होने  के  
साथ ही इस अध्याय का पटाक्षेप हो जायेगा।
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 बात पिछले हफ्ते की है मुझे क्लाइंट मीटिंग के सिलसिले में गुडगाँव जाना था आरक्षण आंदोलन (इसको जाट आंदोलन कहना अधिक उचित होगा) उपद्रवों के चलते सड़क मार्ग से जाना थोड़ा रिस्की था तो सोचा मेट्रो एक सही व कारगर साघन है हालांकि पुरुषों के लिए कोई अधिक सम्मान या सुविधाजनक जैसा यहाँ भी कुछ नहीं (कुछ एक सीटें एक अपवाद हो सकती हैं) जब तक की वो अपनी उम्र के ६०-६५ पड़ाव पार नहीं कर लेता! क्योंकि मैं  पुरुष था (मतलब की अब भी हूँ अक्सर शादीशुदा आदमी इस शब्द से वंचित हो जाता है मेरा सौभाग्य है की मैं फिलहाल उस श्रेणी में नहीं हूँ हालांकि आगे की कोई गारण्टी नहीं खासकर जब तक की ये पोस्ट श्रीमतीजी के हाथ न लगे).......... काफ़ी  कुछ जद्दोजहद के बाद आखिर मेट्रो में चढ़ा और सीधे खड़े होने की कोशिश करने लगा आखिरकार घड़ी का शीशा और चश्मे की एक डंडी टूटने के साथ ही ये सिलसिला समाप्त हुआ और मैं बॉम्बारडियर(दो डब्बों को जोड़ने की जगह) तक पहुचने में कामयाब रहा क्योंकि अगला डिब्बा महिलाओं का था तो वो जगह किसी मजनूँ  के टीले से काम नहीं थी जहां एक ओर मुर्गे अपनी मुर्गियों को खोजते हुए प्रणय बाँग देते नजर आ रहे थे तो दूसरी ओर  कुछ प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं की आँखों में खोये बतियाते नजर आ रहे थे.... उनमे से एक बोला "जान तुम्हारी आँखों में मुझे सारा जहाँ  नज़र आता है"........ मैंने बोला भाई मुझे तो बस इतना बता दे जाटों ने जाम कहाँ-कहाँ लगा रखा है???
जो अबतक एक दुसरे में  खोई हुई थी अचानक कोई लगभग ४०-४५ जोड़ी आँखे मेरी और उठी और टकटकी लगाये देखने लगी में उन सब के बीच विलेन था, मैं  चश्माँ  ठीक करने की कोशिश करने लगा जो की पहले से नदारद था.....अचानक बजी मोबाइल की घण्टी (ट्रिन-ट्रिन)  ने मेरा ध्यान फोन की और आकर्षित किया।   "हैल्लो".....अरे ज्योंन छे रे बामणा???... मैंने कहा " ह हह ह होय## किले को खां रौ हमुकैं...तू सुणा???...बल्लू का फोन था... अभी उतरता हूँ कहके में दरवाजे की और बढ़ने लगा........ अरे के हौ  बमणा??...... अरे के हौ ??.... "हैल्लो.... हैल्लो.... हैल्लो.... "अगला स्टेशन राजीव चौक है येल्लो लाइन के लिए कृपया यहाँ उतरें...."....अब थोड़ी जान में जान आई....हैल्लो...अरे बल्लू कुछ नहीं यार। ...बस तुझे कॉल करता हूँ शाम को भाई.... काम से गुडगाँव जा रहा हूँ...ओके ( गुड़गाँव के लिए ट्रेन का इन्तजार करने लगा... )

क्रमशः 
www.timilatimes.com I http://bhaskar-ld.blogspot.in/

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