उस दिन मैं करीब 4.30 बजे ही उठ गया था. मुझे रात भर नींद नहीं आई थी या यूं कहो की बस दिन निकलने का इंतजार कर रहा था. हमें आज पधान जी के साथ स्कूल में नाम लिखवाने जाना था क्योंकि में अब पूरे 5 साल का जो हो गया था. सारी तैयारियां पूरी कर ली गयी थी, बाज़ार से 2 किलो की गुड़ की भेली शम्बुदा से मंगवा ली थी. बाजार तो खिमुवां भी जाता है लेकिन गाँव में खिमुवां को अच्छा आदमी नहीं समझते थे, खिमुवां बहुत ताकतवर था उसके सामने किसी की कुछ बोलने की हिम्मत तो नहीं होती थी पर उसके पीठ पीछे सभी कहते थे की “बाप तो जो ठैरा, ठैरा बल! बेटा भी कम नहीं ठैरा हो!” पिछले साल जब रजुवा का नाम लिखना था तो उसकी की ईजा ने खिमुवां को पूरे दो रूपये देकर गुड की भेली मंगवाई थी, वो सारे रूपये गप्का गया, बेचारे का नाम बिना गुड़ की भेली के ही लिखना पड़ा, इस्कूल में जो बेइज्जती हुयी सो अलग...
मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया गया, आसमानी रंग की कमीज और खाकी रंग की पैंट पहनाई गयी जोकि मेरी कमर से नीचे बार बार खिसके जा रही थी जिसे सुतली से बाँध कर किसी तरह रोका गया, और मैं पिताजी के साथ इस्कूल को चला गया. यूं तो इस्कूल घर के आँगन से नीचे की ओर देखने पर दिख जाता था पर पहाड़ी व घुमावदार रास्ते होने के कारण घर से करीब 3 मील की दूरी तय करके जाना पड़ता था.
मासाब नमस्कार!! के साथ ही पिताजी ने मेरा परिचय कराया, मासाब ने मुझे नीचे बिछे चटाई में बैठने का इशारा किया जिसमें कि अन्य बच्चे भी बैठे हुवे थे. कुछ देर की लिखा पढ़त के बाद मेरा दाखिला कच्चा एक में हो गया. इसके बाद गुड की भेली को फोड़कर सभी कर्मचारियों, अध्यापकों और बच्चों में बाँट दिया गया.
गाँव में आने वाले सभी रिश्तेदारों के बच्चे जो शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ते थे उनका साथ मिलने से सन्डे, मंडे...गुड मोर्निंग ...आदि...आदि सब सीख गया था पर प्राइमरी स्कूलों में ये सब कहाँ?
स्कूल का पहला दिन हाफ टाइम से पहले तो अच्छे से गुजरा. हाफ टाइम में सभी बच्चों को दलिया खाने को मिलता था सो में भी लाइन में खड़ा हो गया, कुछ देर खड़ा होने के बाद जब मेरा नंबर आया तो मुझे दलिया लेने के लिए कहा गया घबराहट के मारे मैंने जैसे तैसे अपना कमीज का कोना आगे कर दिया रमुवां ने एक पणिया दलिया मेरा पोछिन में दाल दिया. गरमा-गरम दलिया ‘पेट पर लगे तो पेट जलाये और मुहं पर लगे तो मुहं जलाये’, किसी तरह दलिया ख़तम किया तभी हाफ टाइम समाप्त होने की घंटी भी बजी, सभी रंगरूट (नए दाखिला वाले) अपनी कक्षा में अपने अपने स्थान पर आकर बैठ गए. कुछ देर बाद सभी कक्षा के बच्चों को बाहर मैदान में आने को कहा गया और फिर सबने पहाड़े पढ़ने शुरु किये...दो इक्कम दो ...दो दुनी चार ...दो तियां छे........दो दहाई दस.
फिर टन- टन की आवाज के साथ सभी घर को दौड़ पड़े जैसे बहुत से पंछियों को किसी पिंजरे से अचानक छोड़ दिया गया हो और मच गयी होड़ एक दुसरे से आगे निकल जाने की...जो आज तक जारी है... और में भी दाग लगी हुयी कमीज के साथ एक हाथ से पाटी (तख्ती) और एक हाथ से पैंट संभालता हुआ घर के लिए चल दिया. जैसे जैसे घर के नजदीक पहुँच रहा था मार खाने का डर भी लग रहा था की पिताजी आज कमीज की हालत देख के छोड़ेंगे नहीं, पाटी से कमीज को छुपाते हुवे जैसे तैसे घर पहुँच के पिताजी का सामना किया, पिताजी ने डांट लगायी और कहा बेटा कमीज का दाग तो कोई बात नहीं धुल जायेगा, ध्यान रहे चरित्र को कभी दाग नहीं लगने पाए...इस पहले सबक के साथ ही मेरा स्कूल का पहला अनुभव भी मुझे जिंदगी भर याद रहा.
~भास्कर~
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
+९१ ९० १५ ८६८ ८८८
आपके सुझावों का स्वागत है
मासाब नमस्कार!! के साथ ही पिताजी ने मेरा परिचय कराया, मासाब ने मुझे नीचे बिछे चटाई में बैठने का इशारा किया जिसमें कि अन्य बच्चे भी बैठे हुवे थे. कुछ देर की लिखा पढ़त के बाद मेरा दाखिला कच्चा एक में हो गया. इसके बाद गुड की भेली को फोड़कर सभी कर्मचारियों, अध्यापकों और बच्चों में बाँट दिया गया.
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स्कूल का पहला दिन हाफ टाइम से पहले तो अच्छे से गुजरा. हाफ टाइम में सभी बच्चों को दलिया खाने को मिलता था सो में भी लाइन में खड़ा हो गया, कुछ देर खड़ा होने के बाद जब मेरा नंबर आया तो मुझे दलिया लेने के लिए कहा गया घबराहट के मारे मैंने जैसे तैसे अपना कमीज का कोना आगे कर दिया रमुवां ने एक पणिया दलिया मेरा पोछिन में दाल दिया. गरमा-गरम दलिया ‘पेट पर लगे तो पेट जलाये और मुहं पर लगे तो मुहं जलाये’, किसी तरह दलिया ख़तम किया तभी हाफ टाइम समाप्त होने की घंटी भी बजी, सभी रंगरूट (नए दाखिला वाले) अपनी कक्षा में अपने अपने स्थान पर आकर बैठ गए. कुछ देर बाद सभी कक्षा के बच्चों को बाहर मैदान में आने को कहा गया और फिर सबने पहाड़े पढ़ने शुरु किये...दो इक्कम दो ...दो दुनी चार ...दो तियां छे........दो दहाई दस.
फिर टन- टन की आवाज के साथ सभी घर को दौड़ पड़े जैसे बहुत से पंछियों को किसी पिंजरे से अचानक छोड़ दिया गया हो और मच गयी होड़ एक दुसरे से आगे निकल जाने की...जो आज तक जारी है... और में भी दाग लगी हुयी कमीज के साथ एक हाथ से पाटी (तख्ती) और एक हाथ से पैंट संभालता हुआ घर के लिए चल दिया. जैसे जैसे घर के नजदीक पहुँच रहा था मार खाने का डर भी लग रहा था की पिताजी आज कमीज की हालत देख के छोड़ेंगे नहीं, पाटी से कमीज को छुपाते हुवे जैसे तैसे घर पहुँच के पिताजी का सामना किया, पिताजी ने डांट लगायी और कहा बेटा कमीज का दाग तो कोई बात नहीं धुल जायेगा, ध्यान रहे चरित्र को कभी दाग नहीं लगने पाए...इस पहले सबक के साथ ही मेरा स्कूल का पहला अनुभव भी मुझे जिंदगी भर याद रहा.
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