Monday, March 14, 2016

विज्ञापन

दिल्ली हाईकोर्ट ने विज्ञापन मे चेहरा नहीँ दिखाने के लिये कहा तो केजरीवाल आजकल पिछवाडा दिखा रहे है!!
अब सीधे विज्ञापन पे आता हूँ:
नमस्कार जी!! मैं केजरीवाल बोल रहा हूँ.........................(काट दिया साले ने)
नमस्कार जी!! मैं केजरीवाल बोल रहा हूँ.........................(आवाज सुन्के हि काट दिया साले ने)
........
.........
3-4 घंटे की मसक्कत के बाद और लग्भग 3-4 लाख काल बर्दबाद कर्ने के बाद आखिर में...
........
.........
कोइ नहीं फोन पिक कर रहा है इन सब्के पिछ्वाडे पे लात मारनी चहिये......अरे फोन चालु है बात करिये सर...(हैलो!!.....हैलो!!....ये कोन बत्तमीज फोन पे गालिया दे रहा है!??))
........................
नमस्कार जी!! मैं केजरीवाल बोल रहा हूँ....बस एक मिंनट आप्से बात करुंगा फोन मत काटना, जब से ओड इवन शुरू हुआ है तब से तरह तरह की कहाणियां सुनने को मिल रही हैं कुछ दिन पहले मुझे एक वालंटियर मिला। उसने जो मुझे कहानी बताई उस सुन के मेरी आँखों में आंसू आ गए। उसने बताया की ओड वाले दिन एक शख्स रेड लाइट पर इवन गाडी पर रुका। वालंटियर ने हाथ जोड़े और बोला की आप ओड वाले दिन इवन गाडी गलती से ले आएं है शायद।........................
अरे अरे रुको रुको सर...
अरे सुनो तो सर....मे आप्का कंटेंट राइटर बोल रहा हूँ, मैंने ही तो ये कहनी आपको लिख के दी है!!
और सुनो!! जब से ये विज्ञापन आया है लोगो के फोन आ रहे हैं...
कहाँनिया सुनाना बंद करो कुछ काम करो!
टीटी

पलायन

उजड़ी हुई बस्तियां...लोग अनजाने मिले
मुझको मेंरे गाँव...सब वीराने मिले
दरो दीवार बची थी... कहीं छज्जा न मिले
टूटे कीवाडों में बंद ...तहखाने मिले
चीर कर छत की छाती...निकले हैं पेड़ कहीं
आँगन में झाडियाँ... घर परिंदों के आशियाने मिले
क्रमशः... टीटी

मौसम

सुर्ख लाल...
कुछ गुलाबी
या कहो
पर्वत सी
लालिमा लिए, 
जो किरणों के
प्रभाव से
प्रदीप्तमान है ...
वहीँ उसके अन्दर
घुप्प अंधेरों में
दो सुरंगें
जो करती हैं
विभाजित उसे
लगभग दो बराबर हिस्सों में...
उसके अन्दर का
परिदृश्य
जो उगल देता है
हरे, पीले या
कभी कभी हलके गुलाबी
रंग लिए नमकीन स्वाद
वाला द्रव्य और
अन्देशा देता है
मौसम के
बदले प्रभाव का...
वहीँ कुछ जगह
बूंदों का
टप...टप...टप
या
अविरल
धारा की तरह
बदस्तूर जारी
रहता है बहना
मौसम के
बदलने-बदलने तक...
और
मौसम का बदलना
सामने रख देता है
समाज के दो पहलू
एक जो संभाल लेता है
इस द्रव्य को
किसी रेशमी रुमाल में
और दूसरा
परवाह नहीं करता
चाहे जो गति हो द्रव्य की...
फिर अंत में रह जाते है
बांकी निशाँ
फटी कमीज
की बाजुओं पे
जो वक्त के साथ
और गहरे हो उठते है
और निकल पड़ते है
तलाश में
किस ऐसे हाथ का
जो शायद बदल दे
बदलते मौसम की तरह
उनकी किस्मत भी... TT

‪#‎माल्दाहिंसा‬

‪#‎माल्दाहिंसा‬ की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जानी चाहिए!!
क्या इस देश का सेकुलरिज्म यही है?? कहाँ गए सेकुलर, वामपंथी और सो-कॉल्ड राइटर और ऐक्टर जिनको देश में असहिष्णुता नजर आ रही थी यहाँ तक की देश छोड़ने को तैयार थे, न अब कोई हंगामा खड़ा कर रहा है न कोई पुरूस्कार लौट रहा है न ही कोई मीडिया चैनल इस की खबर दिखा रहा है!
क्या इस देश में किसी खास तबके पर ही जुर्म जुर्म है??

थू है ऐसी सोच पर, ऐसे राजनीतिक परिवेश पर जहाँ लोकतंत्र आतंकवादियों, या उनके संरक्षकों या उनको बढ़ावा देने वाले कुछ स्वानपुत्रो, बैषाखनन्दनो की बपौती है!!…...टीटी

र(ङ

चम्म आँख पड़ी जो मुखडी तेरी
तात तेल जस हिकव में ढोई गे
को मुलुक छे सुवा म्यर दगड छोड़ी
के मिलल म्यर स्वेणुक कुड डोई बे
सुकी उड्यार छें आँख म्यॉर चाईये रुनी
खेड़ी हाली सब कल्जाक पात रुई बे
पिंगव-लाल-सुकिल सब आँख रिटनी "भास्कर"
ऊ जाणि कौस र(ङ) पराणी में घोई गे??
क्रमशः:
सर्वाधिकार सुरक्षित

लम्हे

तीर वो जो दुश्मन की कमान के थे
पर तरकश में एक मेहरबान के थे
कोशिशें बहुत हुई हमको गिराने की
ख़ाब अपने भी ऊँचें आसमान के थे
ठोकरें खाकर भी हम गिरके संभल गए
पंख नाज़ुक थे मगर हौंसले उडान के थे
चुरा के लाया हूं मैं जो गुजरे ज़माने से
वो कुछ लम्हे जो अपनी दास्तान के थे
लहू से सींचा था हमने जिस बगिया को
तोड़कर ले गए जो फूल बागबान के थे
रगों में दौड़ती हैं नफ़रतें लहू के बदले
वो हिस्से कभी मेरे हिन्दुस्तान के थे
सर्वाधिकार सुरक्षित

सवाल???: तिमिला टाइम्स

खाली यूं ही न...बबाल कर
खुद से भी कभी... सवाल कर
अपना दुश्मन ...खुद ही न बन
बात कर ज़रा... जुबां सम्भाल कर
तू!!...दलों के दलदल मे न फ़ंस
कुछ अक्ल का... इस्तेमाल कर
कर गुजर ही मिली है... शोहरत यहां
क्या हांसिल होगा?...कमी निकाल कर
संभलकर खर्चकर...नहीं सस्ती है आज़ादी
मिली है जो बहुत ...लाशों को खंगाल कर
अगर मुम्किन नहिं है…नफ़रतों के तीर सहना
कर शमशीर हाथों को…और सीना ढाल कर
तेरा ही तो है…चैन-ओ-अमन रहने दे यहां
वतन की बात कर…गावों को खुश्हाल कर
शहीद होके भी वो शेर…हर दिलों मे जिन्दा हैं
बेरंग न रहने दे…लहू का रंग लाल कर
मुझसे मत पूछ क्या है…वतन-परस्ती “भास्कर”
में फ़िरता हूं तिरंगे का कफ़न…सीने पे डालकर

जे एन यू प्रकरण को एक महीना हो गया है.... हालांकि गलत लोगों को चर्चा का विषय नहीं बनाना चाहिए लेकिन आजकल ये मुद्दा गर्माया हुआ है तो लिखने को विवश हुआ और ये सुनके दुःखी भी हूँ की कुछ लोगों को ब्राह्मणवाद, ठाकुरवाद और न जाने कौन- कौन से वादो से आजादी चाहिए और ये उनके लिए चाहिए जो वतन को तोड़ने की बात करते है और जिनकी देश के प्रति निष्ठा पर ही प्रश्नचिन्ह है !! ...copyright TimilaTimes.com

Thursday, February 25, 2016

राजनीति और प्रेम (व्यंग): तिमिला टाइम्स

राजनीति और प्रेम (व्यंग): तिमिला टाइम्स
नोट: इस घट्ना के सभी पात्र सजीव है इनका सभी के जीवन से कुछ न कुछ लेना देना अवश्य है!!
असहिष्णुता की खट्टी डकारों से चल के देश प्रेम की बदहजमी से होकर आंखिर ये बहस आरक्षण तक जा पहुँची, जहां हर कोइ अपनी-अपनी ढपली व अपना-अपना राग अलाप रहा है! ....वैसे भी इस देश की पडी किसको है?? जिस देश में राजनीती एक व्यवसाय हो और नेता एक व्यवसाई तो उसक देश की विडम्बना ही है की वहां संवेदनाये, अर्थव्यवस्था, देशप्रेम एवं अभिव्यक्ति की आजादी हानि-लाभ से अधिक् कुछ नहीं उसपर लोकतंत्र का तम्बू  जिसमे अनगिनत छेद है जो टिका है कुछ कमजोर खम्भों के सहारे जिसके लगातार गिरने का खतरा बना हुआ है 
मैं अतिउत्साह्वादी होकर अपनी कहानी को नहीं भट्काना चाहता क्योंकि मुझे स्वतन्त्रता अधिक पसन्द है बजाय के किसी पार्टी विशेष के बैनर तले एकाकि होकर किसी व्यक्तिविशेष की विचार धारा का प्रचार-प्रसार करके वर्ग विशेष को कोसना या फ़िर खुद के पांवों पर बेडियां डाल लेना.......... एनीवे !!

"तुष्यारू कड़कड़ घामा औंण तक" अर्थात जिस प्रकार सूरज के निकंलने पर तुषार (बर्फ) पिघलने लगती है उसी प्रकार कुछ हजार करोड़ स्वाहा होने  के  
साथ ही इस अध्याय का पटाक्षेप हो जायेगा।
_______________________________
 बात पिछले हफ्ते की है मुझे क्लाइंट मीटिंग के सिलसिले में गुडगाँव जाना था आरक्षण आंदोलन (इसको जाट आंदोलन कहना अधिक उचित होगा) उपद्रवों के चलते सड़क मार्ग से जाना थोड़ा रिस्की था तो सोचा मेट्रो एक सही व कारगर साघन है हालांकि पुरुषों के लिए कोई अधिक सम्मान या सुविधाजनक जैसा यहाँ भी कुछ नहीं (कुछ एक सीटें एक अपवाद हो सकती हैं) जब तक की वो अपनी उम्र के ६०-६५ पड़ाव पार नहीं कर लेता! क्योंकि मैं  पुरुष था (मतलब की अब भी हूँ अक्सर शादीशुदा आदमी इस शब्द से वंचित हो जाता है मेरा सौभाग्य है की मैं फिलहाल उस श्रेणी में नहीं हूँ हालांकि आगे की कोई गारण्टी नहीं खासकर जब तक की ये पोस्ट श्रीमतीजी के हाथ न लगे).......... काफ़ी  कुछ जद्दोजहद के बाद आखिर मेट्रो में चढ़ा और सीधे खड़े होने की कोशिश करने लगा आखिरकार घड़ी का शीशा और चश्मे की एक डंडी टूटने के साथ ही ये सिलसिला समाप्त हुआ और मैं बॉम्बारडियर(दो डब्बों को जोड़ने की जगह) तक पहुचने में कामयाब रहा क्योंकि अगला डिब्बा महिलाओं का था तो वो जगह किसी मजनूँ  के टीले से काम नहीं थी जहां एक ओर मुर्गे अपनी मुर्गियों को खोजते हुए प्रणय बाँग देते नजर आ रहे थे तो दूसरी ओर  कुछ प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं की आँखों में खोये बतियाते नजर आ रहे थे.... उनमे से एक बोला "जान तुम्हारी आँखों में मुझे सारा जहाँ  नज़र आता है"........ मैंने बोला भाई मुझे तो बस इतना बता दे जाटों ने जाम कहाँ-कहाँ लगा रखा है???
जो अबतक एक दुसरे में  खोई हुई थी अचानक कोई लगभग ४०-४५ जोड़ी आँखे मेरी और उठी और टकटकी लगाये देखने लगी में उन सब के बीच विलेन था, मैं  चश्माँ  ठीक करने की कोशिश करने लगा जो की पहले से नदारद था.....अचानक बजी मोबाइल की घण्टी (ट्रिन-ट्रिन)  ने मेरा ध्यान फोन की और आकर्षित किया।   "हैल्लो".....अरे ज्योंन छे रे बामणा???... मैंने कहा " ह हह ह होय## किले को खां रौ हमुकैं...तू सुणा???...बल्लू का फोन था... अभी उतरता हूँ कहके में दरवाजे की और बढ़ने लगा........ अरे के हौ  बमणा??...... अरे के हौ ??.... "हैल्लो.... हैल्लो.... हैल्लो.... "अगला स्टेशन राजीव चौक है येल्लो लाइन के लिए कृपया यहाँ उतरें...."....अब थोड़ी जान में जान आई....हैल्लो...अरे बल्लू कुछ नहीं यार। ...बस तुझे कॉल करता हूँ शाम को भाई.... काम से गुडगाँव जा रहा हूँ...ओके ( गुड़गाँव के लिए ट्रेन का इन्तजार करने लगा... )

क्रमशः 
www.timilatimes.com I http://bhaskar-ld.blogspot.in/

विज्ञापन

दिल्ली हाईकोर्ट ने विज्ञापन मे चेहरा नहीँ दिखाने के लिये कहा तो केजरीवाल आजकल पिछवाडा दिखा रहे है!! अब सीधे विज्ञापन पे आता हूँ: नमस्कार...