Sunday, January 30, 2011

*****स्मृति चिन्ह*****

चेहरे पर पडी
'झुर्रियाँ'...
उसके बुढ़ापे की
निशानी नहीं...
अनगिनत कहानियों के
'स्मृति चिन्ह' हैं...

जिनमें 'सिमटे' हैं...
'वेदनाओ' के
'अथाह भण्डार'...
'तिल-तिल' मरने के
'किस्से'
और 'दुत्कारे' जाने के
'दंश'...

लूटे-पिटे अधिकार...
जो उसने अपने
'पंगु' व 'व्यथित' मन की
'कालकोठरी' में
'दफ़न' किये हैं...

मुस्कराहट में
उभरती 'लकीरें'...
जो खो गयी हैं
गर्त में...
जहाँ जीवन
पूर्णतः 'अंधकारमय' है...

चहरे पर
बढ़ी दाढ़ी...
जो करती है
नाक़ाम कोशिश...
उसकी हताशा व
बेरोजगारी से मिली
झुर्रियाँ छुपाने का...

२५ साल के
बूढ़े -पिचके चेहरे पर
लिखी सांकेतिक भाषा को
साफ़ साफ़ पढने का
हुनर रखता हूँ
लेकिन उनमें
छिपे वेदनाओं के
अहसास से भी डरता हूँ 

Friday, January 14, 2011

ग़ज़ल-'मेरा महबूब'

वो कभी 'धूप' कभी 'छाँव'...कभी 'शबनम' सा लगे,
मेरा 'महबूब' भी मेरे गाँव के...'मौसम' सा लगे,

नर्म सी 'धूप' सा...खिले 'दिन' में
रात मैं 'चाँद' वो...'पूनम' सा लगे

रखे 'प्यासा'...कभी 'बदली' सा भिगो दे मुझको
वो मुझे 'काली घटा रिमझिम'...'सावन' सा लगे

दे कभी 'खुशियाँ' मुझे...और कभी 'ग़म' सा लगे
जो 'लिपट' जाए मेरे 'जिस्म' से...'मरहम' सा लगे

यूँ तो देता रहा वो...'ज़ख्म' ही मुझे "भास्कर"
जाने क्या बात थी जो...मुझको वो 'हमदम' सा लगे

"यादें"

यूँ तो...
कितना कुछ था...
दुनियाँ में...
दुश्मनी के लिये "भास्कर"...
एक मैं था कि...
बस प्यार में खोया रहा...

वो बड़े अदब से...
मेरी पीठ में...
नश्तर चुभो गया...
मैं रख के सर...
उसकी गोद में...
मुहं ढांक के सोया रहा...

उसके जाने से जो...
एक धूल उठी थी...
ग़म की..
मैं अभी तक... 
उसी धूल को...
आँखों में बसाये रहा...

जाने वाले तू...
एक दिन...
लौटकर आएगा ज़रूर...
मैं यही सोच कर...
अपने दिल में...
तेरी यादों को संजोये रहा...  

Saturday, January 8, 2011

"आईने का सच"

जो भी गुज़रा
तेरे सामने
देखा उसने
अपना "अक्स" तुममें
और तुमने भी
उसी नज़र से
"अहतराम" किया

मैं..."स्याह" सा
"परछाई" बनकर
तेरे पीछे-पीछे चला
और खो गया...
कहीं तेरे "फलक" की ओट मैं..

तू जानती है
मेरे बिना
तेरा भी
कोई "अस्तित्व" नहीं...
पर...अपने "अहं" में
मौन खड़ी है

किसी से
गिला भी हो
तो क्या हो
जब तुमने ही
मुँह फेर लिया

मैं...आज झरूँ तो
तेरा भी न कोई
बाँकी निशाँ होगा

फिर
न "तुम" न "मैं"
केवल "शेष"
"नाज़ुक" ..."भंगुर"
"कांच का टुकड़ा"...

"आईने के दो भाग होते हैं 'अग्र व पश्च ' | दोनों के महत्व को समझाने का प्रयास है मेरी ये कविता <आईने का सच> | पश्च भाग जो हमेशा उपेक्षित रहता है जब की इसके बिना आईने का अस्तित्व भी मुमकिन नहीं...जिसकी अनुपस्तिथि ही आईने के होने या न होने के प्रमाण को ही समाप्त कर देती है और वह सिर्फ रह जाता है...'एक शीशे का टुकड़ा वो भी पारदर्शी' जिसका कोई अक्स नहीं होता...जो नाज़ुक है और भंगुर भी"...मेरा यह प्रयास कितना सफल होता है ये आपके सुझावों और दिए गए प्रोत्साहन पर निर्भर करेगा... !! भास्कर!!

"दुरमुराट"

'डरनु....आपण दुखणु कै 'बताणम'...
की त्यर..'जीगर' लै आल य 'सुणाणम'...
इतुमें 'भागेकी लेख' लै...'सपडजानी' "भास्कर"...
जो 'बखत' नैहैगो...मकैं 'आजमाँणम'...


डरनु'= dar jaana, आपण =apne, 'बताणम'= btane main , त्यर= tera, आल = aayega
'सुणाणम'= sunane main, 'भागेकी लेख'= bhagya main likha hua, .'सपडजानी'= theek ho jaana or sudghar jaana, 'बखत' नैहैगो = samay chale gaya hai, मकैं= mere ko 'आजणाणम'= aajmane main

Tuesday, January 4, 2011

"गाँव"

रस्सीनुमा 
घुमावदार रास्ते
माना पथिक के
हमेशा साथ रहने का
वादा ले रहे हों

उसमें 
उलझे हुवे वृक्ष
जो बँधे होने का सा
एहसास देते हैं

दूर तक फैले
सीढ़ीदार खेत
जैसे हिमालय पर
चढ़ने का साहस
दिखा रहे हों

ऊँचाई से दिखते 
डब्बेनुमा घर
जैसे बच्चो ने
खेल-खेल में
बिखरा दिए हों

जो ऊपर वाले को
तो बहुत छोटे
नज़र आते हैं

और नीचे वालों को
ऊपर वाला 
बिंदु मात्र 

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दिल्ली हाईकोर्ट ने विज्ञापन मे चेहरा नहीँ दिखाने के लिये कहा तो केजरीवाल आजकल पिछवाडा दिखा रहे है!! अब सीधे विज्ञापन पे आता हूँ: नमस्कार...