Friday, January 14, 2011

ग़ज़ल-'मेरा महबूब'

वो कभी 'धूप' कभी 'छाँव'...कभी 'शबनम' सा लगे,
मेरा 'महबूब' भी मेरे गाँव के...'मौसम' सा लगे,

नर्म सी 'धूप' सा...खिले 'दिन' में
रात मैं 'चाँद' वो...'पूनम' सा लगे

रखे 'प्यासा'...कभी 'बदली' सा भिगो दे मुझको
वो मुझे 'काली घटा रिमझिम'...'सावन' सा लगे

दे कभी 'खुशियाँ' मुझे...और कभी 'ग़म' सा लगे
जो 'लिपट' जाए मेरे 'जिस्म' से...'मरहम' सा लगे

यूँ तो देता रहा वो...'ज़ख्म' ही मुझे "भास्कर"
जाने क्या बात थी जो...मुझको वो 'हमदम' सा लगे

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