जो भी गुज़रा
तेरे सामने
देखा उसने
अपना "अक्स" तुममें
और तुमने भी
उसी नज़र से
"अहतराम" किया
मैं..."स्याह" सा
"परछाई" बनकर
तेरे पीछे-पीछे चला
और खो गया...
कहीं तेरे "फलक" की ओट मैं..
तू जानती है
मेरे बिना
तेरा भी
कोई "अस्तित्व" नहीं...
पर...अपने "अहं" में
मौन खड़ी है
किसी से
गिला भी हो
तो क्या हो
जब तुमने ही
मुँह फेर लिया
मैं...आज झरूँ तो
तेरा भी न कोई
बाँकी निशाँ होगा
फिर
न "तुम" न "मैं"
केवल "शेष"
"नाज़ुक" ..."भंगुर"
"कांच का टुकड़ा"...
"आईने के दो भाग होते हैं 'अग्र व पश्च ' | दोनों के महत्व को समझाने का प्रयास है मेरी ये कविता <आईने का सच> | पश्च भाग जो हमेशा उपेक्षित रहता है जब की इसके बिना आईने का अस्तित्व भी मुमकिन नहीं...जिसकी अनुपस्तिथि ही आईने के होने या न होने के प्रमाण को ही समाप्त कर देती है और वह सिर्फ रह जाता है...'एक शीशे का टुकड़ा वो भी पारदर्शी' जिसका कोई अक्स नहीं होता...जो नाज़ुक है और भंगुर भी"...मेरा यह प्रयास कितना सफल होता है ये आपके सुझावों और दिए गए प्रोत्साहन पर निर्भर करेगा... !! भास्कर!!
Saturday, January 8, 2011
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