चर्चे उसके जमाने में कुछ आम हो गए,
उसके शहर में आशिक तमाम हो गए |
बच ना सका कोई लबों से छू के उसे ,
अब तो मयखाने भी सब आलिशान हो गए |
गरज क्या उसे कोई यार जिए और मरे ,
शहर तो उसके लिए सारे शमशान हो गए |
नहीं था साकी को ही अपनी आदतों पे सबर ,
ज़माने भर में देखो मुफ्त में बदनाम हो गए |
तुम्ही को हमसे क्यों है इतनी बेरुखी "भास्कर" ,
शहर में तुम्ही हो जो हमसे अनजान हो गए |
Wednesday, November 24, 2010
और मैं बड़ा हो गया !
यूँ छोड़ गए मुझे
सारी रात रसातल में जलमग्न
बे आबरू करके मुझको
फिर तुमने शर्मसार किया
और रोंद दिया मुझे
दो पत्थरों के बीच
असहाय और लाचार होकर
कतरा - कतरा हो गया मैं
फिर वो क़यामत कि हद
जब तार से छेदा गया
और फैंक दिया बेदर्दी से
गरम तेल की कढ़ाई में
तब मुझे पता चला कि
सारी रात रसातल में जलमग्न
बे आबरू करके मुझको
फिर तुमने शर्मसार किया
और रोंद दिया मुझे
दो पत्थरों के बीच
असहाय और लाचार होकर
कतरा - कतरा हो गया मैं
फिर वो क़यामत कि हद
जब तार से छेदा गया
और फैंक दिया बेदर्दी से
गरम तेल की कढ़ाई में
तब मुझे पता चला कि
मैं बड़ा हो गया !
जुस्तजू
है हमको भी एहसास की, ये ज़िन्दगी की शाम है,
फिर भी जीने के लिए, इक शाम की तलाश है |
साथ यारों का मिला की भूल खुद को ही गए
आराम ही आराम था अब काम की तलश है |
साथ जिसका भी दिया, है ज़ख्म उसने ही दिया,
ज़ख्म ही भरते नहीं, अब जाम की तलाश है |
रात भी कटती जहाँ थी, चांदनी के साथ में,
साथ अंधेरों का मिला, अब चाँद की तलाश है |
अपने लोंगों में रहे , बेकार और गुमनाम हम,
खुद को भी अहसास है, अब नाम की तलाश है |
कोई चीज़ ऐसी है नहीं, "भास्कर" ना ढूँढे मिले,
ज़िन्दगी ग़मगीन है, भगवान् की तलाश है |
मैं और मेरी तन्हाई
आवादी के शहर में तन्हाई ढूँढते हैं
दुश्मनों की भीड़ में दोस्तों को ढूँढते हैं
अंदाज़े बयां और है इस बात का मेरे "भास्कर"
इस शहर की मस्ती को बोतल में ढूँढते हैं
किश्मत में अँधेरा है कोई दूर करे कैसे
एक हाथ में दिया है मंजिल को ढूँढते हैं
तन्हाई का आलम है हर रात अँधेरी है
तेरी याद के सहारे दरवाज़ा ढूँढते हैं
समंदर बहुत गहरा है कोई पार करे कैसे
हर शख्स निगाहों से कश्ती को ढूँढते हैं
सपनों में वो आते हैं इस बात का क्या मतलब
हम दिन के उजाले में भी उनको ढूँढते हैं
अब याद करें हमको इस बात से हैरां हैं
जो बात करे मेरी वो शख्स ढूँढते हैं
मत पूछ मेरा क्या है अब हाल तेरे पीछे
हर शख्स के चहरे में भी तुझको ढूँढते हैं
अपनों से ही पाया है गैरों सा साथ हमने
था प्यार जो अपनों में गैरों में ढूँढते हैं
Tuesday, November 23, 2010
यौवन
ये यौवन
सुबह की धूप सा सुखद सुख |
अंशुमाली की लालिमा लिए सुर्ख गाल,
मुझमें उन्मांद पैदा करते हैं |
काली घटायें लिए जुल्फें ,
मेरे ह्रदय मैं प्रेम वर्षा करती हैं|
मैं तेरे शील सोंदर्य के सम्मुख,
खुद को हिमखंड पाता हूँ |
मैं जानता हूँ की ये उन्मांद,
तेरी उम्र के साथ बदल जाएगा |
तेरी चढ़ती हुई उम्र की धूप में ,
ये हिमखंड भी पिघल जाएगा |
by Bhaskar Anand
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He that loves a rosy cheek,
Or a coral lip admires,
Or from star-like eyes doth seek
Fuel to maintain his fires:
As old Time makes these decay,
So his flames must waste away.
But a smooth and steadfast mind,
Gentle thoughts, and calm desires,
Hearts with equal love combined,
Kindle never-dying fires:
Where these are not, I despise
Lovely cheeks or lips or eyes.
Thomas Carew
Or a coral lip admires,
Or from star-like eyes doth seek
Fuel to maintain his fires:
As old Time makes these decay,
So his flames must waste away.
But a smooth and steadfast mind,
Gentle thoughts, and calm desires,
Hearts with equal love combined,
Kindle never-dying fires:
Where these are not, I despise
Lovely cheeks or lips or eyes.
Thomas Carew
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उफ़ ! ये मौसम
उफ़ ! ये मौसम
दोपहरी की धूप मैं मेरा , मन कुम्हला जाता है,
आँखें टिकी हुयी किताब पर , मन नहीं पढ़ पाता है |
सूखे हुए होंठ ये कहते , हमको पान कराओ,
फटकर गिर जाय्रेगे , इनपर कुछ तो लेप लगाओ |
सूरज को गुस्से मैं देखो, कैसी अगन उगलता ,
दोपहरी की धूप मैं देखो, कंकड़ पत्थर जलता |
जीने की इक चाह मैं देखो, कितने चहरे चलते,
कारों की इस भीड़ मैं देखो बेकार भी जलते |
सूखे चहरे देख के तुझको, इतना रहम न आया ,
इक पल अपन तेज़ रोक के , कर देता तू छाया |
तरस गए कान सुनने को , मेढक का टर्राना,
बहुत हो गयी गर्मी, अब वर्षा ऋतू तू आजाना |
दोपहरी की धूप मैं मेरा , मन कुम्हला जाता है,
आँखें टिकी हुयी किताब पर , मन नहीं पढ़ पाता है |
सूखे हुए होंठ ये कहते , हमको पान कराओ,
फटकर गिर जाय्रेगे , इनपर कुछ तो लेप लगाओ |
सूरज को गुस्से मैं देखो, कैसी अगन उगलता ,
दोपहरी की धूप मैं देखो, कंकड़ पत्थर जलता |
जीने की इक चाह मैं देखो, कितने चहरे चलते,
कारों की इस भीड़ मैं देखो बेकार भी जलते |
सूखे चहरे देख के तुझको, इतना रहम न आया ,
इक पल अपन तेज़ रोक के , कर देता तू छाया |
तरस गए कान सुनने को , मेढक का टर्राना,
बहुत हो गयी गर्मी, अब वर्षा ऋतू तू आजाना |
अधूरा कोना ज़िन्दगी का
आधे - अधूरे
ज़िन्दगी की खुली किताब पर,
जीने की अभिलाषा लिए अक्षर,
अधूरी कविता बनकर रह गए |
जिसे पैदा किया मेरी कलम ने ,
और सराहा मेरे ह्रदय ने ,
वो खुले प्रष्ठों मैं सिमट के रह गए |
मेरे कोमल ह्रदय मैं,
अंकुरित होते शब्दों के बीज,
सब बिखर के रह गए |
अब सुन्न होता मेरा मन,
अनायास देखता रहता है ,
वो प्रष्ट जो आधे अधूरे रह गए |
तुम न आये
तुम न आये ...
ज्योति जलाये सारी रैन जगे,
प्रीतम अबतक घर ना आये |
पतिंगा आये जल मर जाये ,
कबसे हैं मेरे नैन जगे ||
ज्योति जलाये ....
कोई उनके पास तो जाए ,
उनको अपने साथ ले आये |
बीती जाये सारी उमरिया ,
चलते - चलते पाँव थके ||
ज्योति जलाये .....
कब तक तू मुझको तडपाये ,
बैठे हैं हम आश लगाये |
बिखर गया अब मेरा आसरा ,
राह मैं तेरी नैन लगे ||
ज्योति जलाये ......
प्रीतम अब तुम जब आओगे ,
अँधियारा सब घर पाओगे |
सूना घर का आँगन होगा ,
बीती रात पर हम ना जगे ||
ज्योति जलाये सारी रैन जगे
ज्योति जलाये सारी रैन जगे,
प्रीतम अबतक घर ना आये |
पतिंगा आये जल मर जाये ,
कबसे हैं मेरे नैन जगे ||
ज्योति जलाये ....
कोई उनके पास तो जाए ,
उनको अपने साथ ले आये |
बीती जाये सारी उमरिया ,
चलते - चलते पाँव थके ||
ज्योति जलाये .....
कब तक तू मुझको तडपाये ,
बैठे हैं हम आश लगाये |
बिखर गया अब मेरा आसरा ,
राह मैं तेरी नैन लगे ||
ज्योति जलाये ......
प्रीतम अब तुम जब आओगे ,
अँधियारा सब घर पाओगे |
सूना घर का आँगन होगा ,
बीती रात पर हम ना जगे ||
ज्योति जलाये सारी रैन जगे
बचपन ( नान छिना : कौस छि कौस हैगोय )
है याद मुझे मेरा बचपन ,
हर चीज़ सुहानी लगती थी |
हम खेल करें जिस आँगन मैं ,
चिड़ियाँ दाना वहीँ चुगती थी ||
जब रंग बिरंगे पंखों को ,
तितलियाँ फैलाया करती थी |
दोडें बच्चे उनके पीछे ,
वो नाच नचाया करती थी ||
बौराई डालों के नीचे,
घर खूब बनाये मिटटी के |
हँस - हँस के बच्चों के संग मैं ,
कोयल भी गाया करती थी ||
जब धूप खिले घर आगन मैं ,
वो डाल ही छाया करती थी |
मुझको परियों के गीत सुना ,
दादी सुलाया करती थी ||
था रंग भरा कितना बचपन,
अब जीवन क्यों नीरस है बना |
आपस मैं लड़ - लड़ के मानव ,
मानव से क्यों दानव है बना ||
हर चीज़ सुहानी लगती थी |
हम खेल करें जिस आँगन मैं ,
चिड़ियाँ दाना वहीँ चुगती थी ||
जब रंग बिरंगे पंखों को ,
तितलियाँ फैलाया करती थी |
दोडें बच्चे उनके पीछे ,
वो नाच नचाया करती थी ||
बौराई डालों के नीचे,
घर खूब बनाये मिटटी के |
हँस - हँस के बच्चों के संग मैं ,
कोयल भी गाया करती थी ||
जब धूप खिले घर आगन मैं ,
वो डाल ही छाया करती थी |
मुझको परियों के गीत सुना ,
दादी सुलाया करती थी ||
था रंग भरा कितना बचपन,
अब जीवन क्यों नीरस है बना |
आपस मैं लड़ - लड़ के मानव ,
मानव से क्यों दानव है बना ||
विकास : मानव से दानव तक
मानव
सृष्टि की सुन्दर रचना
मनु की सम्पदा
जीवों मैं श्रेष्ट
उस परमब्रह्म की महान उपलब्धि है |
मनुज
प्रकृति का विनाश करके
अपने कर्तव्यों से विमुख हो
अपना ही सर्वनाश कर राह है |
मनुष्य
इस निर्मल रचना को मलीन कर
आपस मैं लड़ - लड़ के
अपना जीवन व्यर्थ कर रहा है |
भीषण नर संहार देख
बेबस और असहाय सृष्टि
रो-रो के पुकारती है
हे जीवश्रेष्ट ! तुझे क्या हो गया |
और
कुंठित होते मेरे मन मैं होता
घोर आश्चर्य !
ईश्वर की इस महान कृति पर |
माँ:- मेरी जीवन पथ प्रदर्शक
मुझको सच्ची राह दिखाती ,
पग-पग की साथी है.
जब भी भटकूँ इधर- उधर मैं ,
राह मैं वो लाती है.
व्याकुल होते मेरे मन को,
वो पुलकित कर देती है.
जीवन का सुन्दर गीत सुना,
शीतल नव श्वर देती है.
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