गयी बीत 'विभावरी'...
देखो 'भास्कर' द्वारे आया...
उठ जाओ 'स्नेही मित्रो'...
नव वर्ष 'खुशियाँ' लाया...
'विभावरी' = रात , 'भास्कर' = सूर्य, सूरज
Friday, December 31, 2010
‘‘कला’’
‘कवि’ होता ?...
लिखता ‘कवितायें’...
व्यक्त करता अपनी ‘पीडा’...
तुम ‘समझ’ लेती...
‘गायक’ होता ?...
गा लेता ‘दुखडॆ’...
धो लेता ‘अन्तर्मन’...
तुम भिगो लेती ‘आंचल’...
‘पन्डित’ होता ?...
वांच लेता ‘भाग्यरेखा’...
दिखाता छुपी ‘तकदीर’ तुमको...
तुम मिला लेती अपनी ‘लकीरें’...
‘संगीतज्ञ’ भी नहीं...
जो बहा के ‘मधुर संगीत’...
‘पिघला’ देता तुम्हारा ‘ह्रदय’...
तुम ‘विह्वल’ हो जाती...
‘काम’ भी नहीं
जो चलाऊं ‘बाण’ नयनों के...
और हर लूं ‘सुध’ सारी...
तुम ‘रति’ सी ‘चन्चल’ हो जाओ...
क्या करूं ‘मैं’ ?
जिसके ‘पास’ है...
अत्यन्त ‘कोमल ह्रदय’...
उस पर ‘साधारण व्यक्तित्व’...
जिसके ‘खो’ जाने का...
‘गहरा दुख’ तो है “भास्कर”...
भावों को ‘व्यक्त’ करने की...
कोई ‘कला’ नहिं...
Wednesday, December 29, 2010
"क्षणिकायें"
"होड़ "
'सिसकियाँ' फूट पड़ी...
'होंठों' से...
हुवे 'रक्त वर्ण'...
'स्याह नयन'...
'रुंधा गला'...
'हिचकियाँ' बंध गयी...
'ढुलकते अश्क'...
'गालों' पर...
मची 'होड़...
एक दूसरे से...
आगे निकल जाने की...
“अस्तित्व”
कहाँ है 'सुख'...
उसके 'भाग्य' में...
'घर आँगन'…
'करूणा' बरसाने का...
वो तो 'मुक्त'...
'घुमक्कड़'...
'मेघ' सा...
'अम्बर' पर...
'भटकता'...
बन-बन, पर्वत शिखर...
यूँ ही 'खो' देता...
अपना 'अस्तित्व'...
Friday, December 24, 2010
हाल-ए-दिल
"फ़टे चीथडों" सी ज़िंदगी... ये "शिशिर-पौष"...
तेरा "सौदाई" हूं...अब मुझको "दश्त-ए-तलब" कहाँ...
है "कौन" समेटेगा...जो "उफ़ताद" में मुझको...
"भंगुर" हूं...सिमट जाना मेरी "फ़ितरत" में कहाँ...
"वहशत" रही ना...न "रंज-ओ-ग़म" मुझको...
"पत्थर" हूँ...मेरे पास मेरा "ज़िगर" कहाँ...
यूं तो "लुट" जाते हैं..."नाका-ए-दरिया" में सभी...
जो बक्श दे "महसूल"...वो तेरा "शहर" कहाँ...
यही "मामूल" है...रहता हूँ दर-बदर "भास्कर"...
दो घडी भर को "सुकूँ" दे....है वो "पहर" कहाँ...
१. सौदाई= पागल, २. दश्त-ए-तलब = इच्छा का जंगल, ३. उफ़ताद= अचानक आई हुई कोई विपत्ति, ४. भंगुर= बिखरने वाली वस्तु, ५. फ़ितरत= आदत ६. वहशत= घबराहट, ७. रंज-ओ-ग़म= दुःख का आभास, ८. नाका= चुंगी ९. महसूल= चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स, १०. मामूल= दिनचर्या, ११. सुकूँ= आराम, १२. पहर = समय
"वहशत" रही ना...न "रंज-ओ-ग़म" मुझको...
"पत्थर" हूँ...मेरे पास मेरा "ज़िगर" कहाँ...
यूं तो "लुट" जाते हैं..."नाका-ए-दरिया" में सभी...
जो बक्श दे "महसूल"...वो तेरा "शहर" कहाँ...
यही "मामूल" है...रहता हूँ दर-बदर "भास्कर"...
दो घडी भर को "सुकूँ" दे....है वो "पहर" कहाँ...
१. सौदाई= पागल, २. दश्त-ए-तलब = इच्छा का जंगल, ३. उफ़ताद= अचानक आई हुई कोई विपत्ति, ४. भंगुर= बिखरने वाली वस्तु, ५. फ़ितरत= आदत ६. वहशत= घबराहट, ७. रंज-ओ-ग़म= दुःख का आभास, ८. नाका= चुंगी ९. महसूल= चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स, १०. मामूल= दिनचर्या, ११. सुकूँ= आराम, १२. पहर = समय
Wednesday, December 22, 2010
"आलू" का ख़त "प्याज़" के नाम
स्थान: रेडी चौक, शनि बाज़ार मंडी
समय: बुरा
काल: अकाल
आदरणीय प्याज महोदय,
नमस्कार !
सुना है आजकल सातवें आसमान पे हो | आपके तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए | कहाँ हम कभी एक ही रेडी पर रहते थे , तुम्हारे कुछ बच्चे हमारेसाथ और हमारे कुछ बच्चे तुम्हारे साथ शाम को चले जाया करते थे | हमारी जोड़ी को लोग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे कहते थे |
भय्या तुम्हारे तो अब दिन सुधर गए ! सुना है अब तो कला बाजारी के धंधे में भी अपने पैर जमा लिए हैं |
गोभी चाचा और कद्दू चची बता रहे थे की तुम्हारे लिए लोग सुनार की दुकानों में खड़े रहते हैं | तुम्हारी मालाएं और अंगूठियाँ बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रही हैं | तुम्हारी तो हमेशा सबको रुलाने की आदत रही है| भिन्डी ने रो रो के बुरा हाल किया है , तुमरे वियोग में मुर्गी-अंडे सब बेहाल है...
गलतियों पर ध्यान न देना | तुम्हारा सफर कैसा रहा लिखना| उम्मीद करता हूँ की तुम जल्द ही अपने पुराने घर "रेडी" पर वापस आओगे |
अंत में...
यूँ तो... कभी हम साथ-साथ थे
एक दूसरे के लिए... दिल में ज़ज्बात थे
सुना है...अब नज़र सातवें आसमान है
कभी... हम दोनों के एक से हालत थे
लिखने को और भी बहुत कुछ है.... बाँकी सब तुम्हारे घर वापस आने पर .....
तुम्हारा अभागा मित्र
आलू
समय: बुरा
काल: अकाल
आदरणीय प्याज महोदय,
नमस्कार !
सुना है आजकल सातवें आसमान पे हो | आपके तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए | कहाँ हम कभी एक ही रेडी पर रहते थे , तुम्हारे कुछ बच्चे हमारेसाथ और हमारे कुछ बच्चे तुम्हारे साथ शाम को चले जाया करते थे | हमारी जोड़ी को लोग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे कहते थे |
भय्या तुम्हारे तो अब दिन सुधर गए ! सुना है अब तो कला बाजारी के धंधे में भी अपने पैर जमा लिए हैं |
गोभी चाचा और कद्दू चची बता रहे थे की तुम्हारे लिए लोग सुनार की दुकानों में खड़े रहते हैं | तुम्हारी मालाएं और अंगूठियाँ बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रही हैं | तुम्हारी तो हमेशा सबको रुलाने की आदत रही है| भिन्डी ने रो रो के बुरा हाल किया है , तुमरे वियोग में मुर्गी-अंडे सब बेहाल है...
गलतियों पर ध्यान न देना | तुम्हारा सफर कैसा रहा लिखना| उम्मीद करता हूँ की तुम जल्द ही अपने पुराने घर "रेडी" पर वापस आओगे |
अंत में...
यूँ तो... कभी हम साथ-साथ थे
एक दूसरे के लिए... दिल में ज़ज्बात थे
सुना है...अब नज़र सातवें आसमान है
कभी... हम दोनों के एक से हालत थे
लिखने को और भी बहुत कुछ है.... बाँकी सब तुम्हारे घर वापस आने पर .....
तुम्हारा अभागा मित्र
आलू
Sunday, December 19, 2010
"दुआ "
'सूखा'...
'भुखमरी'...
'बेहाल जिंदगी'...
'गरीबी' में...
ग़र थी तो...
'दुआ' थी...
'लबों' पे...
'फ़कीरी' में...
फिर 'आँधी' थी...
'तूफ़ान' था...
'आग' थी...
'बिजली' और 'चिंगारी' में...
'जलमग्न'...
'रसातल' में कण-कण---
'विलुप्त'....
सारी 'कायनाथ' हुई...
न 'काया'... न 'माया'...
विलीन 'प्राण'...
कुछ यूँ...
'गरीबों' की 'दुआ क़बूल' हुई...
'भुखमरी'...
'बेहाल जिंदगी'...
'गरीबी' में...
ग़र थी तो...
'दुआ' थी...
'लबों' पे...
'फ़कीरी' में...
फिर 'आँधी' थी...
'तूफ़ान' था...
'आग' थी...
'बिजली' और 'चिंगारी' में...
'जलमग्न'...
'रसातल' में कण-कण---
'विलुप्त'....
सारी 'कायनाथ' हुई...
न 'काया'... न 'माया'...
विलीन 'प्राण'...
कुछ यूँ...
'गरीबों' की 'दुआ क़बूल' हुई...
Friday, December 17, 2010
उदघोष
मौन...
अकेला...
अविरल...
अनंत पथ पर...
विकल शून्य में...
भटकता...
खोजता ज्योति तम में...
करता अभिसार नभ पर...
असंख्य नक्षत्र...
अभिमुख...
करते अभिनन्दन...
रंगीले स्वप्न का संसार लेकर...
लेकर गर्व मैं...
अपनी विभा का...
मनुज हूँ...
ढो रहा व्यथा का भार लेकर...
कली की पंखडी पर...
ओस की बूँदे नहीं मैं...
दबा तूफ़ान हूँ...
प्रलय का क्षुब्ध पारावार लेकर...
नि: शब्द...
खद्योत सा...
व्योम पटल पर...
धर्म की हूंकार लेकर...
अकेला...
अविरल...
अनंत पथ पर...
विकल शून्य में...
भटकता...
खोजता ज्योति तम में...
करता अभिसार नभ पर...
असंख्य नक्षत्र...
अभिमुख...
करते अभिनन्दन...
रंगीले स्वप्न का संसार लेकर...
लेकर गर्व मैं...
अपनी विभा का...
मनुज हूँ...
ढो रहा व्यथा का भार लेकर...
कली की पंखडी पर...
ओस की बूँदे नहीं मैं...
दबा तूफ़ान हूँ...
प्रलय का क्षुब्ध पारावार लेकर...
नि: शब्द...
खद्योत सा...
व्योम पटल पर...
धर्म की हूंकार लेकर...
Tuesday, December 14, 2010
पाव भर रजाई
सर्द मौसम मैं...
यूँ सिमट जाना...
एक दूसरे की बाँहों मैं..
कंपित होंटों से...
छू लेना उसको...
फिर उसका ...
मेरे आगोश में...
यूँ लिपटना ...
जैसे वादा ले रही हो...
कभी नहीं अलग होने का...
महसूस करना..
गर्म साँसे उसकी...
फिर समा जाना उसमें...
मेरा शब भर के लिए...
और भूल जाना मेरा ...
भूत, भविष्य, वर्तमान...
निकाल पड़ना ...
सपनों की सैर पर...
और दूर हो जाना मुझसे...
घने स्याह अंधकार का ...
खुद को पाना मेरा ...
शांति के अथाह ब्रह्माण्ड मैं...
अचानक सुनाई देना...
चिड़ियों का चहचहाना...
मंदिर की घंटियाँ...
और मस्जिद की अज़ान...
फिर जुदा कर देना इनका हमें...
दिन भर के लिए...
यूँ सिमट जाना...
एक दूसरे की बाँहों मैं..
कंपित होंटों से...
छू लेना उसको...
फिर उसका ...
मेरे आगोश में...
यूँ लिपटना ...
जैसे वादा ले रही हो...
कभी नहीं अलग होने का...
महसूस करना..
गर्म साँसे उसकी...
फिर समा जाना उसमें...
मेरा शब भर के लिए...
और भूल जाना मेरा ...
भूत, भविष्य, वर्तमान...
निकाल पड़ना ...
सपनों की सैर पर...
और दूर हो जाना मुझसे...
घने स्याह अंधकार का ...
खुद को पाना मेरा ...
शांति के अथाह ब्रह्माण्ड मैं...
अचानक सुनाई देना...
चिड़ियों का चहचहाना...
मंदिर की घंटियाँ...
और मस्जिद की अज़ान...
फिर जुदा कर देना इनका हमें...
दिन भर के लिए...
Sunday, December 12, 2010
हिंदी छंद/कविता के नियम: संक्षिप्त में
(if Needed in English…….please Write @ bhaskarsag@gmail.com)
हिंदी में बहुत से छंद होते है | बड़ी कठिनाई से लिखा जाता है नियमो के साथ: मैंने कोशिश की है कि सामानांतर उर्दू के शब्द दूँ |
“छंद”:
“यति”,“गति”, वर्ण या मात्र की गणना के विचार को छंद या पद कहते है.
पंक्तियों को “चरण” या “पद” कहते है----(उर्दू …मिसरा)
“यति”:
छंद पढ़ते समय…जो बीच -बीच में रुकना पढता है उसे यति कहते है|
“गति ”:
छंद पढ़ते वक़्त……जो उतार चढाव एक लय देता है, उसे गति कहते है |
तुक:
(तुक-बंदी)…चरण (मिसरा ) के अंत में जो सामान शब्द आते है (उर्दू में …….रदीफ़, काफिया) तुकों से छंद… लय, सुनने में प्रिय व् रोचक हो जाता है……
“मात्रा”:
किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है……उसे मात्र कहते है……“मात्रा” दो प्रकार की होती है…….”लघु” और “गुरु / दीर्घ”
लघु मात्रा: समय थोडा लगता है जैसे अ, इ, उ, ऋ (का, के, की, कु, क्र)
गुरु/दीर्घ: ई, ई, ऊ, ये, यी, ओ, औ (का, की, कू, कै, को, कौ)
मात्रा की गणना (उर्दू—बेहेर) ही छंद के प्रकार निर्धारण करती है)
सयुक्त व्यंजन में पहला….लघु भी गुरु माना जाता है
विसर्ग और अनुस्वार….से युक्त….वर्ण भी गुरु माना जाता है
गण:
हिंदी में 8 गण होते है…जो 3-3 अक्षरों के समूह होते है…
यगण (1 2 2), मगण (2 2 2), तगण (2 2 1), रगण (2 1 2), जगण (1 2 1), भगण (2 1 1), नगण (1 1 1), सगण (1 1 2)
छंद के कई भेद /प्रकार होते है…उनका आधार नीचे दिए गए हैं…
1. वर्णवत: वर्णों के उनुसार गणना होती है
2. मांत्रिक: चरणों की गणना मात्राओ पर आधारित रहती है
3. मुक्तक: इन में ऊपर का कोई नियम नहीं होता
सबसे पहले मैं…….
१. मुक्त छंद:
“अतुकान्तीय छंद” जो सब गणनाओ से आजाद है…..पर सुन्दरता के लिए…लय, उतार चढाव का प्रयोग हो सकता है, तुक का हो सके तो प्रयोग होता है…इनमे “विचार” अहम है … आज कल ज्यादातर यही रचनाये हिंदी में मिलती है…दूसरी लोग ग़ज़ल कह देते है...
२.“चौपाईयां”:
चार चरण, हर में 16 मात्राएँ, जगण, तगण…अंत में नहीं होता |
३.“रोला”:
कुल 24 मात्राएँ, ११वीं और बाद में १३वीं पर विराम, अंत में दो गुरु होना जरूरी है |
४.”दोहा”:
पहले और तीसरे चरण में १३ मत्राए, दुसरे और चोथे में ११ मत्राए….पहले, तीसरे चरण जगण से शुरू नहीं होता, और दूसरे, चोथे का वर्ण सम और लघु होना चाहिए |
५.”सोरठा”:
पहले, तीसरे चरण में ११-११ मात्राएँ, दुसरे और चोथे चरण में १३-१३ मात्राएँ होनी चाहिए ….इसमें पहले और तीसरे चरण के तुक मिलते है |
६.”कुण्डलिया”:
शुरुआत में एक दोहा, बाद में ६ चरण होते है…दोहे का अंतिम चरण..रोला का पहला चरण होता है…पहला और अंतिम शब्द एक होता है…
७.”सवैया”:
प्रत्येक चरण में..७, भगण और दो गुरु वर्ण होते है |
८.”कविता”: 4 चरण होते है, प्रतेक चरण मै 16, 15, और 31 वर्ण होते है, प्रत्येक चरण के अंत मै गुरु वर्ण होना चाहिए…गति ठीक करने के लिए…8..8..8..और 7 वर्ण पर यति रहना चाहिए………
Thursday, December 9, 2010
कौवमव
१.
जून जसी ब्वारी मिलली कौ ईज़ल
बेई ब्याव देखि पेट च्याप बे मैंल जून
रात भर ग्यों रवोट जसी देखि मकैं |
२.
भिनेर जस लागौ आंगम म्यार
को चुलम बै आछा तुम
लकड़-पताडकि कुड़ी म्यरी, घर आला के हौल |
३.
बाड़-खवाड त्यार, य गौं- गाड त्यार
य कुड़ी तेरी कुड़ी नानतिन बुडबाड़ी त्यार
द्य्पतो ! कधिने अपण कुड़ लै चै जाओ |
४.
कौतिक मैं हराई लै मिलीं छै
झ्वाड खेलणम, हाथम हाथ धरी
यस सबेरी लै अलोप होंछ क्वे |
५.
त्यार खातिर गौं पधान लै है ज़ोंल
के मिलल ऊ बऊ, सीमेंट खैबेर
लधोड़ चिरी जालो ल्वे ऐजाल |
६.
म्यार दगड़ रोंछी रात्ती ब्याव
अज्याल चाहें ले नि आन बाखई फन
चिरी खलेती हैई , डबल लै हरे जानी |
७.
फुटी कपाव पार निशाण छै नानछिनक
ढूंग डांसील खेल्छी दिनभर
कत्तु कय म्हें नटूवां दगै नि रौ |
८.
अब डीट लै निलागनी मेरी कै पार
अंखाक द्वार ले टूटी छै म्यार
गास - गास जास मिली मैंस मकैं |
९.
ऊ जो म्यर सांकै छी कल्ज़ काखक
साक पै दांत बुड़े गो बेई
लोग नादी ज़स ड़ोंर्यानी उके खेतू मैं |
जून जसी ब्वारी मिलली कौ ईज़ल
बेई ब्याव देखि पेट च्याप बे मैंल जून
रात भर ग्यों रवोट जसी देखि मकैं |
२.
भिनेर जस लागौ आंगम म्यार
को चुलम बै आछा तुम
लकड़-पताडकि कुड़ी म्यरी, घर आला के हौल |
३.
बाड़-खवाड त्यार, य गौं- गाड त्यार
य कुड़ी तेरी कुड़ी नानतिन बुडबाड़ी त्यार
द्य्पतो ! कधिने अपण कुड़ लै चै जाओ |
४.
कौतिक मैं हराई लै मिलीं छै
झ्वाड खेलणम, हाथम हाथ धरी
यस सबेरी लै अलोप होंछ क्वे |
५.
त्यार खातिर गौं पधान लै है ज़ोंल
के मिलल ऊ बऊ, सीमेंट खैबेर
लधोड़ चिरी जालो ल्वे ऐजाल |
६.
म्यार दगड़ रोंछी रात्ती ब्याव
अज्याल चाहें ले नि आन बाखई फन
चिरी खलेती हैई , डबल लै हरे जानी |
७.
फुटी कपाव पार निशाण छै नानछिनक
ढूंग डांसील खेल्छी दिनभर
कत्तु कय म्हें नटूवां दगै नि रौ |
८.
अब डीट लै निलागनी मेरी कै पार
अंखाक द्वार ले टूटी छै म्यार
गास - गास जास मिली मैंस मकैं |
९.
ऊ जो म्यर सांकै छी कल्ज़ काखक
साक पै दांत बुड़े गो बेई
लोग नादी ज़स ड़ोंर्यानी उके खेतू मैं |
Wednesday, December 8, 2010
"द्रष्टान्त "
ढाई आँखर
प्रेम शब्द कि उत्पत्ति इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ हुई क्योकि इसके बिना ना तो जीवन संभव है नहीं कोई वस्तु मात्र | इसके बिना पूरे ब्रम्हांड की कल्पना मात्र भी संभव नहीं | हमारे शास्त्रों में इसका उल्लेख मात्र ही नहीं इसका महत्व भी बताया है | जीवन को बनाये रखने के लिए प्रेम होना आवश्यक है , ये केवल प्राणी मात्र के बीच ही नहीं अपितु संसार की प्रत्येक वस्तु के बीच संभव है | यदि मनुष्य और हवा के बीच प्रेम नहीं होगा तो मनुष्य का जीवन दुर्लभ हो जायेगा अतः मनुष्य और हवा के बीच प्रेम है | हमारे ब्रह्माण्ड में प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म कणों से मिलके बनी है, इन कणों में प्रेम नहीं तो और क्या है, यही प्रेम इनको बाँधे रखता है | यदि इनमे प्रेम नहीं होगा तो किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होगा |
आधुनिक युग में मनुष्य ने प्रेम को अपने भोग विलास तक सीमित कर इसके महत्व को नहीं समझा है | उसके लिए प्रेम केवल शारीरिक सुख प्राप्ति ही रह गया है |
मनुष्य का जीवन केवल भोग विलास तक सीमित नहीं है | भोग विलास तो मनुष्य की उम्र के साथ समाप्त हो जायेगा परन्तु सच्चा प्रेम मनुष्य को सामान बनाये रखता है | कभी नहीं समाप्त होने वाली इस अमूल्य निधि को मनुष्य केवल पाने की इच्छा मात्र रखता है | यदि मनुष्य वेदों का अध्ययन कर आत्मा चिंतन करे और इसके सही अर्थ को समझे तो उस परम शक्ति (परमआनंद) को प्राप्त करने के मार्ग को खोज पायेगा |
मोक्ष ही प्रेम की सही उत्पत्ति का केंद्र है | संसार की माया मोह में ना पडके मनुष्य सदमार्ग पर चले तो वह प्रेम का सही अर्थ जान पायेगा तथा देववाणी में छुपे सारतत्व को ग्रहण कर सकेगा |
" प्रेम केवल कामाग्नि को शांत करने का साधन नहीं अपितु मानसिक व आत्मिक शांति का परिचायक है .........भास्कर आनंद "
"प्रेम मोक्ष का द्वार है जहाँ मनुष्य उस परम अनुभूति का अनुभव करता है ...........भास्कर आनंद "
प्रेम शब्द कि उत्पत्ति इस सृष्टि की उत्पत्ति के साथ हुई क्योकि इसके बिना ना तो जीवन संभव है नहीं कोई वस्तु मात्र | इसके बिना पूरे ब्रम्हांड की कल्पना मात्र भी संभव नहीं | हमारे शास्त्रों में इसका उल्लेख मात्र ही नहीं इसका महत्व भी बताया है | जीवन को बनाये रखने के लिए प्रेम होना आवश्यक है , ये केवल प्राणी मात्र के बीच ही नहीं अपितु संसार की प्रत्येक वस्तु के बीच संभव है | यदि मनुष्य और हवा के बीच प्रेम नहीं होगा तो मनुष्य का जीवन दुर्लभ हो जायेगा अतः मनुष्य और हवा के बीच प्रेम है | हमारे ब्रह्माण्ड में प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म कणों से मिलके बनी है, इन कणों में प्रेम नहीं तो और क्या है, यही प्रेम इनको बाँधे रखता है | यदि इनमे प्रेम नहीं होगा तो किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं होगा |
आधुनिक युग में मनुष्य ने प्रेम को अपने भोग विलास तक सीमित कर इसके महत्व को नहीं समझा है | उसके लिए प्रेम केवल शारीरिक सुख प्राप्ति ही रह गया है |
मनुष्य का जीवन केवल भोग विलास तक सीमित नहीं है | भोग विलास तो मनुष्य की उम्र के साथ समाप्त हो जायेगा परन्तु सच्चा प्रेम मनुष्य को सामान बनाये रखता है | कभी नहीं समाप्त होने वाली इस अमूल्य निधि को मनुष्य केवल पाने की इच्छा मात्र रखता है | यदि मनुष्य वेदों का अध्ययन कर आत्मा चिंतन करे और इसके सही अर्थ को समझे तो उस परम शक्ति (परमआनंद) को प्राप्त करने के मार्ग को खोज पायेगा |
मोक्ष ही प्रेम की सही उत्पत्ति का केंद्र है | संसार की माया मोह में ना पडके मनुष्य सदमार्ग पर चले तो वह प्रेम का सही अर्थ जान पायेगा तथा देववाणी में छुपे सारतत्व को ग्रहण कर सकेगा |
" प्रेम केवल कामाग्नि को शांत करने का साधन नहीं अपितु मानसिक व आत्मिक शांति का परिचायक है .........भास्कर आनंद "
"प्रेम मोक्ष का द्वार है जहाँ मनुष्य उस परम अनुभूति का अनुभव करता है ...........भास्कर आनंद "
Tuesday, December 7, 2010
औचाट...
वीक पराणी पार,
थौ लै निरोंछी |
आपाण बाड़- ख्वाडाकि खबर,
उकें अपूण हैबे सकर रोंछी |
पाँख जास उड़े गाय ऊँ,
जो नन्तिना पार पराणी वीक रोंछी|
हदगयी श्योव करीछी जाना लिजी,
छोड़ गयी ऊं यकाल उकैं,
अन्यार कुणम ,
शांशौक दी जस |
कैहेंते फेडीं
अपन पराणी असंत ,
ही भरी जाँ वीक,
जब याद ऐं आपाणकि |
आन्गम छटबटाट पडूँ,
जब कल्जौमुनाव पार औषाण आँछ,
और आँख लैजानी शरग,
चानी ब्याणतारै मुखडी |
आयी आश लै जाली नई दिनकी,
फिर दौंकार आयी उठल ,
जो फेड़ी जाल कुटव - दातुलील,
बाड़ ख्वाडा में........................
वाड-शयोनू में........................
मरण - मरण जालै |
थौ लै निरोंछी |
आपाण बाड़- ख्वाडाकि खबर,
उकें अपूण हैबे सकर रोंछी |
पाँख जास उड़े गाय ऊँ,
जो नन्तिना पार पराणी वीक रोंछी|
हदगयी श्योव करीछी जाना लिजी,
छोड़ गयी ऊं यकाल उकैं,
अन्यार कुणम ,
शांशौक दी जस |
कैहेंते फेडीं
अपन पराणी असंत ,
ही भरी जाँ वीक,
जब याद ऐं आपाणकि |
आन्गम छटबटाट पडूँ,
जब कल्जौमुनाव पार औषाण आँछ,
और आँख लैजानी शरग,
चानी ब्याणतारै मुखडी |
आयी आश लै जाली नई दिनकी,
फिर दौंकार आयी उठल ,
जो फेड़ी जाल कुटव - दातुलील,
बाड़ ख्वाडा में........................
वाड-शयोनू में........................
मरण - मरण जालै |
Thursday, December 2, 2010
भुलि (भास्कर) जबाब "ददा (मदन)" नाम
ब्यथा
खेड़ दिया गाड़ गध्यारा में हमुंकें,पर मण्डी में नीलाम झन करिया |
ज्योन रण को चां रौ य बखतम,बच रैया कैबे मुनाव हाथ झन करिया |
नमस्कार ले भौत छ य देसम, हाथ जोड़ दिया कल्ज़ लगाण बात झन करिया |
प्यार मर बे ले प्यार रौल ,आपण हाथूल य चड़ी जाम झन करिया |
बाग़ जास बुकाहें लै ऐंल तकैं "भास्कर"बकार जस तुम आपण पराण झन करिया |
बकार जस तुम आपण पराण झन करिया |
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दिल्ली हाईकोर्ट ने विज्ञापन मे चेहरा नहीँ दिखाने के लिये कहा तो केजरीवाल आजकल पिछवाडा दिखा रहे है!! अब सीधे विज्ञापन पे आता हूँ: नमस्कार...
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चेहरे पर पडी 'झुर्रियाँ'... उसके बुढ़ापे की निशानी नहीं... अनगिनत कहानियों के 'स्मृति चिन्ह' हैं... जिनमें 'सिमटे...
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खाली यूं ही न...बबाल कर खुद से भी कभी... सवाल कर अपना दुश्मन ...खुद ही न बन बात कर ज़रा... जुबां सम्भाल कर तू!!...दलों के दलदल मे न...
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तीर वो जो दुश्मन की कमान के थे पर तरकश में एक मेहरबान के थे कोशिशें बहुत हुई हमको गिराने की ख़ाब अपने भी ऊँचें आसमान के थे ठोकरें खाकर...