Friday, December 31, 2010

‘‘कला’’

कविहोता ?...
लिखता ‘कवितायें’...
व्यक्त करता अपनी ‘पीडा’...
तुम समझलेती...

‘गायक’ होता ?...
गा लेता ‘दुखडॆ’...
धो लेता ‘अन्तर्मन’...
तुम भिगो लेती ‘आंचल’...

‘पन्डित’ होता ?...
वांच लेता ‘भाग्यरेखा’...
दिखाता छुपी ‘तकदीर’ तुमको...
तुम मिला लेती अपनी ‘लकीरें’...

‘संगीतज्ञ’ भी नहीं...
जो बहा के ‘मधुर संगीत’...
‘पिघला’ देता तुम्हारा ‘ह्रदय’...
तुम ‘विह्वल’ हो जाती...

‘काम’ भी नहीं
जो चलाऊं ‘बाण’ नयनों के...
और हर लूं ‘सुध’ सारी...
तुम ‘रति’ सी ‘चन्चल’ हो जाओ...

क्या करूं ‘मैं’ ?
जिसके ‘पास’ है...
अत्यन्त ‘कोमल ह्रदय’...
उस पर ‘साधारण व्यक्तित्व’...

जिसके ‘खो’ जाने का...
‘गहरा दुख’ तो है “भास्कर”...
भावों को ‘व्यक्त’ करने की...
कोई ‘कला’ नहिं...

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