Tuesday, December 8, 2015

आग

आग बुझ चुकी तेरे चूल्हे की 
चराग आँखों के बुझ चुके 
लौट आऊँ गाँव अपने
ये कभी शायद हो मुमकिन
आग पेट की भी बुझती रहे 
इतना तो इंतजाम कर लूं... `भास्कर`

‪#‎डिक्टेटरशिप‬

चौमासक ग्ध्याराक जस भमभमाट कब तक रौल
आई फिर पौन बदलेली आई फिर ह्योन आल...टीटी

सफ़र

कुछ दिन पहले बम्बई नाथ स्वामी जी की कृपा से अपने गांव जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। करीब साढ़े नौ बजे अपने घर से निकल कर मोहन नगर तक शेयरिंग ऑटो और फिर आनंद विहार तक सीधे ऑटो न करके वैशाली मेट्रो तक टैम्पू और आनंद विहार तक मेट्रो में सफ़र किया हालांकि ये पूरी यात्रा अगर अपना व्हीकल हो तो 20 मिनट से अधिक नहीं लेकिन मैंने टुकड़ों में यात्रा की तो मुझे 50 मिनट से अधिक का समय लग गया । मेरे पास सामान कुछ अधिक नहीं फिर भी एक पिट्ठू बैग एक कोट जो कवर के साथ और खाने का टिफिन था।
ूरे 100 रु खर्च करने के बाद अन्ततः आनंद विहार स्टेशन पहुँच गया। वहाँ का नजारा देखने के बाद लगा की गलती से कही किसी मेले में तो नहीं पहुच गया, काफी कुछ जद्दोजहद और 30_35 गाड़ियों से उतरने के बाद वापस घर जाने का मन बनाया फिर सोचा अभी तो साढे ग्यारा ही बजे है कुछ और प्रयास किया जाय ।
क्योंकि स्टेशन के अंदर बहुत अधिक भीड़ थी इसलिए साँस लेना भी दूभर हो रहा था ऊपर से कई लोगों से पूछने के पश्चात् भी ये पता नहीं चल पा रहा था की रामनगर को कौन सी गाड़ी जायेगी और जायेगी भी या नहीं, अब तो मेरा आत्मविस्वास भी कुछ डिगने लगा था कुछ ही दूरी पर हल्द्वानी की 10-12 गाड़ियां खड़ी थी जो खचाखच भरी हुई थी सोचा किसी भी गाड़ी में जगह मिल जाय तो हल्द्वानी तक ही निकल लिया जाय पहाड़ को जाने वाली गाड़ियां छोटी होती है इसलिए अधिक भरी प्रतीत हो रही थी ।
अंततः भारी क़दमों से धीरे धीरे स्टेशन से बाहर की ओर चलने लगा, जैसे जैसे स्टेशन पीछे छूट रहा था मन में घोर निराशा के बादल उमड़ रहे थे, करीब एक किलोमीटर बाहर आजाने के पश्चात भी भीड़ का सिलसिला कुछ कम नहीं हुआ लोगों को जो भी खाली गाड़ी अंदर आती दिखी बस उसमे चढ़ और उतार रहे थे जब तक की उनको उनके गन्तब्य की और जाने वाली सही गाड़ी नहीं मिल जाती...ये सिलसिला जारी था।
कुछ दूरी तय करने पर एक भीड़ दिखी जो मेन रोड से लगभग 500 मीटर अंदर थी बाहर जाते हुवे मैं कुछ देरी के लिए सुस्ताने के लिए रुक गया मेरी घडी उस समय 12 :15 बजा रही थी उनकी बातें सुनकर लगा की वो भी मेरी तरह निराश व् हताश हैं ..." नहे जोंल यार घर क्वे ले गाड़ी रामनगर वाली नैछ्...आगलगाओ यार! गोरु बकार जस हम ले रोजे यास राय...कुकुरा का पोथिल काधिन यथां सार काधिने उथाँ" उनमे से एक बोला।
तुमुल काँ जाणो? मेरी आवाज ने उनको मेरी ओर देखने को बाधित किया। उनमे से एक बोला "रामनगर"... तुमुल? मैंने कहा ...मैंल लै। ....
To be continued...

उम्मीद

तेरे लौट आने की उम्मीद तो नहीं "भास्कर"
जाने क्या सोच कर मैंने घर नहीं बदला

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता अच्छी है, लेकन किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना या गुणगान करना सही नहीं है।हमें किसी भी व्यक्ति के काम की आलोचना या प्रशंसा करनी चाहिए ये बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन किसी भी महकमे में होने वाले कार्यों के लिए क्या कोई व्यक्ति विशेष ही जिम्मेदार है या वो पूरा महकमा जिसका दायित्व उस को ठीक प्रकार से चलाना है।
जहाँ तक किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रश्न है वह उस समाज का आयना होता है जहाँ वो रहता है। हमें उन स्थानो अथवा समाज का निर्धारण करना चाहिए जहाँ हमारी बहुल आवादी रहती है।
आज समाज का मूल्यांकन किसी उच्च स्तर से नहीं जड़ से करने की आवश्यकता है जो आगे आकर एक ऐसा नेतृत्व पैदा कर सके जो खोखले होते लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत कर संविधान व् राष्ट के नवनिर्माण में सहायक होे। ...टी टी
नोट: ये लेखक के अपने विचार हैं, इनका किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी से कोई लेना देना नहीं है।
और हाँ, ये पोस्ट उन महानुभाओं के लिए नहीं है जो समाज को किसी व्यक्ति विशेष के चश्मे से देखते हैं।

‪#‎गजबजी‬ ‪#‎भबरी‬

आ आके...फिर वापस जाना तेरी मस्त निगाहों की क़ैद से
गजबजी जाने से "भास्कर" तो तेरा भबरी जाना अच्छा होता

पराणी

जाणि कै कैक पराणी गोठी रौ यो पहाड़ों मेँ
धात लगाओ तो, बाजनी ढूँग पाथर यांक ....टी टी

कुछ तो बात है इन पहाड़ की हवाओं में!!

पड़ी जो रौशनी नजर कि तेरी, बीमार दिल भी जी उठे
हँस के कांच के टुकड़ो को, चमकने का हुनर दे गया
यूँ ही रह जाती गुमनाम ज़माने में मुहब्बत अपनी
बहा जो आँख से अश्क, ज़माने को खबर दे गया
होना होता है ये अंजाम तो, प्यार में अच्छा क्या है?
एक टीस मिली दिल को, मुझे मीठा जहर दे गया
दो कदम साथ का वादा था, वो भी होके न हुआ
क्यों मेरी टूटती सांसों को एक लंबा सफ़र दे गया?
चुटके हुए आँख के शीशों में है तसवीर 'भास्कर'
मेरी किस्मत मुझे एक तेरे सिवा, सारा शहर दे गया

कलम

दिल के छालों को कुछ ठंडी हवा लगती है
अश्कों में डूब के जब मेरी कलम चलती है ~TT(भास्कर)~

~ख़त~

कुछ धुँआ सा उठा है कहीं
नम हवाओं में मेरी गंध है
ढुलकते अश्कों ने,
बुझती सांसों से कहा
खूँ से लिखे ख़त
जला रहा है कोई... ~भास्कर~

‪#‎निगावगुसैं‬

अब तो बड़ा कोई रहा नहीं।
सब तल के खा दिए हैं बल!!
कुछ बड़े बन्ने के चक्कर में पकोड़े हो गए है और कुछ मांस जो भिजाये थे अंकुरित हो गए इस इन्तजार में कि कोई आएगा उनको पीसेगा!
यहाँ सील भी अपना है बट्टा भी लेकिन पीसने वाला कोई और!
सत्ता बेडू टाईप लोगों के हाथ में है अब भगवान बचाये!!

स्वतंत्रता दिवस

सभी देशवासियों एवम् मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की शुभ कामनायें!!
मैंने गुलाम भारत को तो देखा नहीं हाँ किताबों, किस्सों कहानियो में जरूर पढ़ा है जो पढ़ने व् सुनने के बाद लगता है की तब बोलने लिखने की आजादी नहीं रही होगी।
मैं जिस भारत में पैदा हुआ वो जवान भी था और आजाद भी!!
जब तक स्कूल में था 15 अगस्त का आगाज सुबह की प्रभात फेरी से आरम्भ होकर मौज़ मस्ती खेल कूद व् मिस्ठान वितरण पर समाप्त होता था। हमें इसदिन का वर्षभर इन्तजार रहता था।
लेकिन जब बड़ा हुआ तो समझ आया की किस आजादी का जश्न मनाते थे हम?
आज लगता है की आजादी मिली किसको?
पुलिस को: जो सरे आम किसी भी गरीब दबे कुचलों को लहूलुहान कर सकती है।
नेताओं को: जो जनता को लूट खसूट कर मनमाने काम कर सकेँ और अपनी जेबें भर सकें
उद्योगपतियों को: जो देश पर अपनी मनमानी थोप सकें जिसके आधार पर गरीब के निवाले की कीमत निर्धारित हो सके।
या उनको जो धार्मिक उन्माद पैदा कर आपस में लडाने का खेल खेल सकें।
कुछ बुनियादी बिसमताएँ रही है इनसे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन आजादी किसको मिली ये अब भी यक्ष प्रश्न है।
मुझे अब भी लगता है की अगर गुलाम भी होते तो परिस्थितियाँ कुछ अधिक भिन्न नहीं होती हाँ सिर्फ अंतर ये होता आज खुद के लोग देश लूट रहे है तब दुसरे लूट रहे होते!!
नोट: ये लेखक के अपने विचार हैं इसका किसी व्यक्ति विशेष अथवा दल विशेष से कोई लेना देना नहीं है अगर ऐसा पाया जाता है तो ये सिर्फ संयोग मात्र है।...टी टी

कन्फ्यूजन

बहुत बड़ा कन्फ्यूजन है साब!! कोई इनकी दुविधा को दूर करे!!
बसि कुसंग चाहत कुसल, कह रहीम जिय सोस।
महिमा घटि समुद्र की, रावण बस्‍यो पड़ोस।।
(रहीम कहते हैं- बुरी संगत में रहते हुए कुशलता की कामना करने वाले के लिए अफसोस होता है. रावण के पड़ोस में रहने से तो समुद्र की महिमा भी घट गई थी.
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
(रहीम कहते हैं- उत्तम प्रकृति वाले व्यक्‍ति‍ का कुसंगति भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती. वैसे ही जैसे, चंदन के पेड़ से सांप के लिपटे रहने के बावजूद उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता.)
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोये।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोये॥
कबीर कहते हैं कि क्यों व्यर्थ में हम किसी दूसरे में दोष ढूँढने लगते हैं? वे कहते हैं कि हमें अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिये। यदि कहीं कोई कमी है तो वो "मुझमें" है। मैं किसी दूसरे व्यक्ति में गलतियाँ क्यों ढूँढू? यदि मैं किसी के साथ निभा नहीं पा रहा हूँ तो बदलाव मुझे करना है।

कहानी:

मनुष्य के साथ यही तो तकलीफ है। जब जीवन की बात की जाये तो कहानी लगती है और जब कहानी सुनाई जाये तो लगता है इसमें कहानी जैसा तो कुछ भी नहीं। हम यही तो देखते हैं अपने आसपास सबकुछ वही कहानी जैसा बिलकुल। फिर भी कहानी तो कहानी ही है क्योकि जब मैंने कहा नी है तो पता कैसे चलेगा की क्या कहा नि है जो अबतक कहानी है। अनुभव या कहानी जो कुछ भी है, यही है। बाँकी सब ऐसा ही ठैरा!!
आज घर की सफाई करने का मन हुआ तो सबसे पहले अपने कमरे की ओर ध्यान गया। नीचे कार्पेट जो अब तक 10 किलो धूल खा चूका था आज हलका महसूस कर रहा होगा। led जो जाने अनजाने कई दिनों से अपने ऊपर एक बोझ लिए खड़ा था आज उसे भी मुक्ति मिली यही ख़ुशी कोने पे पडा कंप्यूटर भी मना रहा था जो लेपटोप के आजाने के बाद उपेक्षित था।
नीचे की सफाई करने के बाद ऊपर सेल्फ पर पड़े सामान की सफाई करनी थी जैसे ही ऊपर सेल्फ पर।गया तो मुझे मेरा पुराना संदूक मिला । उसे खोलते ही में अपनी पुरानी यादों में वापस लौट गया जहाँ में अपना सबकुछ छोड़ आया था।
To be continued...

‪#‎मुंशीप्रेमचंदजयंती‬ ‪#‎उपन्याससम्राठ‬

शायद कम लोग जानते है कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे और इसके बाद उसे हिन्दी अथवा उर्दू में अनूदित कर विस्तारित करते थे। 
आप की लेखनी ने पतवार बन शब्दरुपी सागर में हमेशा कहानियों की नावों को खूब नाचाया है। आपकी कहानियां मार्मिक, सामाजिक ताने बने पर बुनी समाज के चरित्र और समाज के आइने का दर्शन कराती हैं।साहित्य प्रेमी हमेशा आपको एक मार्गदर्शक के रूप में देखेंगे तथा आपके दिखाये मार्ग का अनुसरण करेंगे!!.....टी टी

‪#‎निगावगुसैं‬

अब तो बड़ा कोई रहा नहीं।
सब तल के खा दिए हैं बल!!
कुछ बड़े बन्ने के चक्कर में पकोड़े हो गए है और कुछ मांस जो भिजाये थे अंकुरित हो गए इस इन्तजार में कि कोई आएगा उनको पीसेगा!
यहाँ सील भी अपना है बट्टा भी लेकिन पीसने वाला कोई और!
सत्ता बेडू टाईप लोगों के हाथ में है अब भगवान बचाये!!

स्वतंत्रता दिवस

सभी देशवासियों एवम् मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की शुभ कामनायें!!
मैंने गुलाम भारत को तो देखा नहीं हाँ किताबों, किस्सों कहानियो में जरूर पढ़ा है जो पढ़ने व् सुनने के बाद लगता है की तब बोलने लिखने की आजादी नहीं रही होगी।
मैं जिस भारत में पैदा हुआ वो जवान भी था और आजाद भी!!
जब तक स्कूल में था 15 अगस्त का आगाज सुबह की प्रभात फेरी से आरम्भ होकर मौज़ मस्ती खेल कूद व् मिस्ठान वितरण पर समाप्त होता था। हमें इसदिन का वर्षभर इन्तजार रहता था।
लेकिन जब बड़ा हुआ तो समझ आया की किस आजादी का जश्न मनाते थे हम?
आज लगता है की आजादी मिली किसको?
पुलिस को: जो सरे आम किसी भी गरीब दबे कुचलों को लहूलुहान कर सकती है।
नेताओं को: जो जनता को लूट खसूट कर मनमाने काम कर सकेँ और अपनी जेबें भर सकें
उद्योगपतियों को: जो देश पर अपनी मनमानी थोप सकें जिसके आधार पर गरीब के निवाले की कीमत निर्धारित हो सके।
या उनको जो धार्मिक उन्माद पैदा कर आपस में लडाने का खेल खेल सकें।
कुछ बुनियादी बिसमताएँ रही है इनसे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन आजादी किसको मिली ये अब भी यक्ष प्रश्न है।
मुझे अब भी लगता है की अगर गुलाम भी होते तो परिस्थितियाँ कुछ अधिक भिन्न नहीं होती हाँ सिर्फ अंतर ये होता आज खुद के लोग देश लूट रहे है तब दुसरे लूट रहे होते!!
नोट: ये लेखक के अपने विचार हैं इसका किसी व्यक्ति विशेष अथवा दल विशेष से कोई लेना देना नहीं है अगर ऐसा पाया जाता है तो ये सिर्फ संयोग मात्र है।...टी टी

‪#‎आरक्षण‬

बचपन से ये पढ़ता आ रहा हूँ एक निर्धन ब्राह्मण था...न जाने कितनी कहानियाँ, लेख व् किस्से इस पर कहे व् प्रकाशित किये गए पर उनकी दशा में कोई आश्यर्यजनक परिवर्तन नहीं हुए!!
समय पूर्व भी जिन राजाओं के दरबार में ब्राह्मण रहे तो उस काल के राजाओं की विदेश व् सामाजिक नितियाँ अधिक प्रभावशाली व् क्रान्तिकारी रही!
आज लगता है की वास्तव में आरक्षण देने की आवश्यकता इनको थी जो शिक्षा व् चारित्रिक रूप से अधिक मजबूत व् सक्षम थे।
...टी टी

‪#‎भलमैंस‬

कुछ यौस कै बे मैंल आपण दौंकार मुक्ये ली,
कैकी गाई मंगे ली, कैकणी गाई हुस्ये दी!!
म्यार घात पिचास आई ले गौं में कम नि छै,
कतुक मौ उजाड़ दी, मैंल कतुक मौ बुस्ये दी!!
बख़्ताक कपाव पार कील म्यारे नान गाडिल कैबे,
"दिल्लि" कतुक ब्वाज पूजे दी, कतुक रूपें घुस्ये दी!!
चणी रा! बखत रोज्जे एक जस नि रौन "भास्कर"
छर फोकी बे घर भै रौ उ जो बेइ तक गुसैं छी!!
मुक्ये = उढ़ेलना (यहाँ उगलने से है)
हुस्ये= गलत शब्दों का प्रयोग करके बोलना
बुस्ये= जड़ से समाप्त कर देना
for more word meaning you can write to me at bhaskarsag@gmail.com
If anyone want to give their suggestions can also write with their name and mobile no downunder...

शेरो सायरी

फोड़ी छिलुक जस त्यर कल्ज़ "भास्कर"
जब चाय् ज़ैल चाय् जले ली...
तेरे लौट के आने की कोई उम्मीद तो नहीं "भास्कर"
जाने क्या सोच के मैंने घर नहीं बदला..

HASGULLE

पति पत्नी से:
सुनो! तुम आज छत पर मत जाना।
लोग तुम्हें देख के व्रत तोड़ देंगे।
पत्नी पति से:
सुनो! तुम भी आज छत पे मत जाना।
तुम्हें देख के लोग तुम्हारे भाँट तोड़ देंगें
भाँट: पसली ribcage

करवा चौथ (ए स्टोरी ऑफ़ इनोसेन्ट हसबैंड)

सुनो!!
अब 12 बजने वाले है अपना नाटक बंद कर दो और हाँ वो मेरे जूते तुमने जो आज जबरदस्ती उतारे थे कहाँ रख दिए है? सुबे ढूंढने में परेशनि होगी तुम्हारी तो सुबह ही 9 बजे होती है तब तक में ऑफिस पहुच चूका होऊंगा।
और कितना गन्दा कर दिया है सारा किचन तुमने? यूँ भी तुम्हे कहाँ रोज रोज खाना बनाने की आदत है, सारा सामान ही अस्तव्यस्त कर दिया है।
अरे...... सो गयी क्या अब ये तो बता दो कल नास्ते में क्या बना के जाँउ...सुक्र है आजकल बच्चों की छुट्टियां है वर्ना मेरी जान को एक ये कलेश भी था।
...टू बी कॉन्टिन्यूड

‪#‎लोकतंत्र‬ बुकिलोडाव (बिहार चुनाव २०१५): TIMILATIMES ०८-११-२०१५)

गठजोड़, गठबंधन, बिखराव, अहिष्णुता, गौमाता, बीफ़ हिन्दू-मुश्लिम एवं सेक्युलर राजनीतीक पतन , आरोप-प्रत्यारोप एवं आक्षेप के साथ एक और राज्य के चुनाओं का पटाक्षेप हो गया|
राजनीती में रहे तो चुनाओं का आना जाना तो लगा रहेगा लेकिन जिंतने राजनीतिक मूल्यों का पतन इस बार के चुनाओं में हुआ इससे पहले शायद ही कभी हुआ हो|
न मैं अपने को राजनीती का विश्लेषक मानता हूँ और नहीं ही मेरा राजनीती के लेखन व समीक्षा में अधिक अनुभव है पर इस बार हुए आकाश्मिक परिवर्तनों ने लिखने को विवश किया| बिहार चुनाव की समीकक्षा मेरे द्वारा किये गए प्रिंट व् डिजिटल मीडिया के आंकणों का एक मात्र आधार जहां तक जमीनी हकीकत का प्रश्न है वो सभी राजनीतिक पंडितों के लिये भी यक्ष प्रश्न साबित हुआ| क्योंकी जितने भी अनुमान और आंकड़ों के दावे इसबार किये गए नतीजे कही ज्यादा उनके उलट थे|
जहाँ तक देश के कुछ राज्यों बिहार और यूपी का प्रश्न है यहाँ न विकास कभी मुद्ददा था न रहेगा पिछले कुछ चुनाव इस बात के गवाह हैं|
इस बार के चुनावों में एक ओर जहाँ बीजेपी के चाणक्य अमित शाह व् प्रधानमंत्री की जोड़ी आकर्षण का केंद थी वहीँ दूसरी ओर सुशासन बाबू नीतीश कुमार व् लालू की जोड़ी की इज्जत दांव पर थी...किसी का राजनीतिक भविष्य खतरे में था तो कोइ पिछले प्रदर्शन दोहराने का दबाव झेल रहा था|
जिस तरह बीजेपी के पूर्व ब्रांड संचालक ने पाला बदल सुशाशन बाबू की री-रैपिंग की “बिहार में बहार हो , नितिशे कुमार हो” भी प्रमुख कारकों में से एक साबित हुआ| मेरे विश्लेषक मित्र शायद इस बात से सहमत न हों पर राजनीती में दुश्मन की चालों का पूर्वानुमान होना भी एक प्रमुख कारक होता है अगर आप मात न सही लेकिन बचाव अवश्य कर सकते है यही बीजेपी के साथ बिहार में हुआ जिससे बीजेपी की सभी चालें या तो नाकाम हुई या बेनतीजा रही| सुशासन बाबु की छवि का लाभ जहाँ एक ओर कांग्रेस को हुआ वहीँ आरजेडी ने भी दोनों हाथों से भुनाने में कोइ कसर नहीं छोड़ी| महागठबंधन को बिहार में नाराज हुए कुछ बीजेपी के समर्थको और विधायको का भी साथ मिला जो उनकी ताबूत में आंखरी कील साबित हुए ये आंकड़े इस बात के गवाह हैं (२०१० बीजेपी ९१ सीट और २०१५ ५३ सीट ३८ सीटों का नुकसान; २०१० आरजेडी २२ सीट और २०१५ ८० सीट ५८ सीटों का फायदा; २०१० जेडीयू ११५ सीट और २०१५ ७१ सीट ४४ सीटों का नुकसान; कोंग्रेस २०१० ४ सीट और २०१५ २७ सीट २३ सीटों का फायदा), शत्रुघ्न सिन्हा नाराज हुए बीजेपी प्रमुखों में एक थे उनका आगामी पार्टी के चुनावी विश्लेषण में क्या हस्र होगा ये तो समय ही बताएगा लेकिन आज के समय में निःस्वार्थ राजनितिक सफ़र कम ही देखने को मिलता है इनका स्थान आजकल चाटुकार, पूंजीपति, छुटभय्ये, बाहुबली और क्र्मिनल बैकग्राउंड के नेताओं ने हथीया लिए हैं अब राजनीती कोइ देश सेवा का मार्ग नहीं अपितु एक व्यवसाय है जिसमे राजीतिक सत्ता लाभ व् मुनाफे के लिए किसी हद तक भी गिरा जा सकता है! मुझे बरसाने लाल की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई जिसमे उन्होने राजनीती पर कटाक्ष करते हुए कहा है की: “थूककर चाटना साहित्य में वीभत्स रस माना जाता है राजनीति में अब उसे श्रृंगार रस मान लिया गया है”
इस पूरे चुनाव में अगर किसी दल विशेष को फायदा है तो वो आरजेडी व् कांग्रेस हैं, जिनको उनके धुरविरोधी अब तक चूका हुआ मान चुके थे, फिर से अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए जिन्होंने सुशासन बाबू के इंजन का बखूबी इस्तेमाल किया और अपनी गाड़ियों को पटरी में लाने का काम किया|
कुल मिलकर राजनीति का एक पक्ष ये भी है की जनता किसे अपने सर अंखों पर बिठाये और किस को उतार फैंके ये सब अंतिम और सर्वमान्य निर्णय होता है जिसका सम्मान होना चाहिये, फिर चाहे विकास, आरक्षण, सुशासन, हवा, ध्रुवीकरण और सेक्युलर कोई भी मुद्दे हों मुद्दे नहीं रह जाते और जात पात भाई-भतीजावाद और मैं-मेरा ये सब इतने बड़े हो जाते है की अन्य सभी मुद्दे बौने रह जाते हैं, क्योंकि अगर सुशासन और विकास ही मुद्दा होता तो क्यों तो बीजेपी का ये हश्र होता और क्यों नीतीश की सीटें घटती! लालू ने दिखा दिया की क्यों आज भी वो अपने विरोधियों के लिए अबूझ पहेली और राजनीती के धुरंधर खिलाडी हैं|
‪#‎राजनीती‬ में एक जीत आपके दामन पे लगे सभी दाग धो देती है, मुझे ये लोकतंत्र की कम‪#‎भाई‬ ‪#‎चारे‬ की जीत अधिक लगती है जो कि लोकतंत्र की बदनसीबी नहीं तो और क्या है? जहाँ आज भी आजादी के 60 सालों में ये सब देखते हुए ये नहीं पता चल पाता की लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई या आज भी टिका है किसी तरह कुछ खम्बों के सहारे जहाँ आज भी लगातार इसके गिरने का खतरा बना हुआ है|
नोट: लेखन एक स्वतंत्र प्रक्रिया है इसको किस दल विशेष के चश्मे से न देखें|
ये लेख उन लोगों के लिए है जो राजनीती को स्वतंत्र निष्पक्षता के आयाम से देखते है राजनीती के ‪#‎सिटोल‬ मुझे माफ़ करे ये उनके लिए नहीं है: TT
(WRITE TO ME @ BHASKARSAG@GMAIL.COM)

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